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१२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
३-कुमारिलने जैनसम्मत केवलज्ञानकी उत्पत्तिको आगमाश्रित मानकर यह अन्योन्याश्रय दोष दिया है कि-'केवलज्ञान हुए बिना आगमकी सिद्धि नहीं हो सकती तथा आगम सिद्ध हुए बिना केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।'
"एवं यः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम ।"
"नते तदागमात्सिद्धयेत् न च तेनागमो विना।"-मी० श्लो० पृ० ८७
अकलंकदेव न्यायविनिश्चय का० ४१२-१३ ) में मीमांसाश्लोकवार्तिकके शब्दोंको ही उद्धृत कर इसका उत्तर यह देते हैं कि-सर्वज्ञ और आगमकी परम्परा अनादि है । इस पुरुषको केवलज्ञान पूर्व आगमसे हुआ तथा उस आगमकी उत्पत्ति तत्पूर्व सर्वज्ञसे । यथा
"एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजम्भितम् । नर्ते तदागमात्सिद्धयेत् न च तेन विनागमः ॥
सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः। प्रभवः पौरुषेयोस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥". शाब्दिक तुलना
"पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ।"-मी० श्लो० पृ० ६९५ "प्रत्यक्षप्रतिसंवेद्यः कुण्डल दिषु सर्पवत् ।"-न्यायवि० का० ११७
"तदयं भावः स्वभावेषु कुण्डलादिषु सर्पवत् ।"-प्रमाणसं० पृ० ११२ धर्मकीर्ति और अकलंक.-अकलंकने धर्मकीतिकी केवल मार्मिक समालोचना ही नहीं की है, किन्तु परपक्षके खंडनमें उनका शाब्दिक और आर्थिक अनुसरण भी किया है । अकलंकके साहित्यका बहुभाग बौद्धोंके खंडनसे भरा हुआ है। उसमें जहाँ धर्मकीर्तिके पूर्वज दिग्नाग आदि विद्वानोंकी समालोचना है वहाँ धर्मकीर्तिके उत्तरकालीन प्रज्ञाकर तथा कर्णकगोमि आदिके विचारोंका भी निरसन किया गया है। अकलक और धर्मकीतिकी पारस्परिक तुलना कुछ उद्धरणों द्वारा स्पष्ट रूपसे नीचे की जाती है
१-धर्मकीतिके सन्तानान्तरसिद्धि प्रकरणका पहिला श्लोक यह है"बुद्धिपूर्वा क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् । मन्यते बुद्धिसद्भावं सा न येषु न तेषु धीः।"
अकलंकदेवने राजवार्तिक ( पृ० १९ ) में इसे 'तदुक्तम्' लिखकर उद्धृत किया है तथा सिद्धिविनिश्चय ( द्वितीय परि०) में तो 'ज्ञायते बुद्धिरन्यत्र अभ्रान्तः पुरुषः क्वचित्' इस हेरफेरके साथ मलमें ही शामिल करके इसकी समालोचना की है।
२-हेतुबिन्दु प्रथमपरिच्छेदका "अर्थक्रियार्थी हि सर्वः प्रेक्षावान् प्रमाणमप्रमाणं वाऽन्वेषते" यह वाक्य लघीयस्त्रयकी स्वोपज्ञविवृति (पृ० ३) में मूलरूपसे पाया जाता है । हेतुबिन्दुकी
‘पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमाद् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ॥" इस आद्यकारिकाकी आलोचना सिद्धिविनिश्चयकी हेतुलक्षणसिद्धिमें की गई है।
३-प्रमाणविनिश्चयके "सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः" वाक्यकी अष्टशती ( अष्टसह. पृ० २४२ ) में उद्धरण देकर आलोचना है । ४-वादन्यायकी-"असाधनाङ्गवचनमदोषोदभावनं द्वयोः ।
निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥" इस आद्यकारिकाको समालोचना न्यायविनिश्चय ( का० ३७८ ) में, सिद्धिविनिश्चयके जल्पसिद्धि प्रकरण में तथा अष्टशती ( अष्टसह० पृ० ८१ ) में हुई है।
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