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जैनदर्शन: एक मौलिक चिन्तन
• श्री निर्मल जैन, सतना
संसार और उसके चेतन-अचेतन समस्त द्रव्योंको जानने और समझनेकी जिज्ञासा, जिज्ञासु व्यक्तियों को हमेशा रही है । दृष्टिगोचर एवं अनुभवगम्य पदार्थों का अस्तित्व कबसे है, किस कारण से है और कब तक रहेगा । इनके उत्पन्न होने, बने रहने और विनश जानेकी प्रक्रियाका रहस्य क्या है, कौन सी शक्ति इसके पीछे कार्य करती है । इत्यादि प्रश्नोंका उत्तर पानेके लिए लोग विशिष्ट ज्ञानी-तपस्वी जनों की शरण में जाते रहे हैं । अध्यात्म प्रधान हमारे भारत देशमें इन प्रश्नों का उत्तर देने वालोंकी भी कमी नहीं रही, विभिन्न मत-मतान्तरोंके जनक या व्याख्याकारोंने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार प्रश्नोंको सुलझानेका प्रयास किया परन्तु पक्ष व्यामोहके कारण और दूसरी मान्यताओंको सर्वथा मिथ्या मानने के कारण वे सही स्थितिको न तो समझ सके और न जिज्ञासुओंको समझा सके ।
अनन्त धर्मात्मक वस्तुओंकी तह में वे जितने घुसे अपने सीमित और भ्रामक ज्ञानके कारण उतने ही उलझते चले गये। अपनी मान्यता बनाए रखनेके लिए कुछ न कुछ उत्तर देना भी उन्हें अभीष्ट था सो येनकेन-प्रकारेण उक्ति बिठाकर उत्तर देते रहे । एक दो दार्शनिकोंने कुछ प्रश्नोंको अनावश्यक बताकर टाला भी और कुछ ने अपनी अनभिज्ञता भी जाहिर की, पर जिज्ञासाएँ तो बनी ही रहीं ।
जैनदर्शनमें विश्वव्यवस्था और उसके पदार्थोंका सूक्ष्म और वैज्ञानिक विश्लेषण अनादिकालसे होता आया है । भगवान् महावीरके निर्वाणके कुछ काल बाद केवलज्ञानियोंकी परम्परा समाप्त हुई परन्तु भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि और उसके बाद हुए केवली श्रुतकेवली भगवंतों द्वारा प्रसारित ज्ञानका सहारा लेकर ईसाकी दूसरी शताब्दीसे १५वीं शताब्दी तक बहु श्रुतज्ञ जैनाचार्योंने अनेक ऐसे ग्रन्थोंकी रचना की जिसमें जैनदर्शन और न्यायको पूरी बारीकियोंके साथ प्रस्तुत किया गया है। तथा मिथ्या मान्यताओंका खण्डन भी युक्तिपूर्वक किया गया है। उक्त शास्त्र प्रायः प्राकृत भाषामें लिखे गए, उनकी टीकाएँ भी श्र तज्ञ आचार्यों द्वारा हुईं पर संस्कृत में । कुछ शास्त्र मौलिक रूपसे संस्कृतमें लिखे गए ।
इस बीच अन्य दार्शनिकोंने भी अपने मतकी पुष्टिके लिए ग्रन्थ लिखे । साथ ही भारतीय दार्शनिक क्षितिजपर कुछ ऐसे दर्शनों / दार्शनिकोंका भी उदय हुआ जिन्होंने अपने मतकी पुष्टि के लिए कुतर्कों के द्वारा जैनदर्शनका खण्डन करना प्रारम्भ किया। जैसे स्याद्वाद के मूल स्वर स्यात् शब्दका अर्थं संशयके रूप में प्रतिपादित कर एक भ्रामक व्याख्या उपस्थित की गई ।
बीसवीं सदी में आते-आते भाषाकी दुरूहता जन साधारण के लिए आर्ष ग्रन्थोंके स्वाध्यायमें बाधक बनने लगी । शास्त्रोंकी हिन्दी टीकाएँ तो हुई परन्तु दर्शन और न्याय विषयक ग्रन्थोंपर कार्य करने वाले विद्वान् विशेष नहीं हुए। कुछ इने-गिने विद्वानोंने ही इन विषयोंको अपने चिन्तनका विषय बनाया ।
इस शताब्दीके चौथे दशक में युवा विद्वान् पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने इन गम्भीर विषयोंका विशद अध्ययन किया, केवल जैनदर्शन ही नहीं, अन्य भारतीय दर्शनोंका भी गहन अध्ययन करके उन्होंने अपने विचारोंको शब्दोंका आकार देना प्रारम्भ किया । जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनका स्तुत्य कार्य करनेवाली संस्था भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना में तथा विद्वत् परिषद जैसी संस्थाकी स्थापनामें भी पं० महेन्द्रकुमार जीका विशेष योगदान था । भारतीय ज्ञानपीठकी व्यवस्थामें सहयोगी बनकर उन्होंने 'न्यायकुमुदचन्द्र', 'न्यायविनिश्चयविवरण', 'अकलंक ग्रन्थत्रय', 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड', 'तत्वार्थ वार्तिक', 'तत्वार्थवृत्ति', 'सिद्धिविनि
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