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२/जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : २५
विदत्ताके लिए वस्तुतः कठोर परिश्रम, उत्कट अभिलाषा, दृढ़ संकल्प और असीम धैर्य की आवश्यकता होती है, साथ ही उसे आवश्यक है सामाजिक-सम्मान, पुरस्कार एवं प्रेरक उत्साहवर्धन । यदि जैन समाज अपना भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहता है, तो उसे जैन विद्याके साधकों को प्रतिष्ठा एवं सम्मान देना होगा । इस दिशामें उन्हें मध्यकालीन जैन समाज की जिनवाणी-भक्ति एवं विद्वज्जन-सेवासे सबक सीखना होगा। जैन-विद्या एवं विद्वानों के प्रति उसे अपने मनमें श्रद्धाका गुण जागृत करना होगा।
विद्वानों की गहन साधना एवं उनके गुणों की उपेक्षा नहीं होना चाहिए। क्योंकि एक गुणका आदर हजार गणों को उत्पन्न करता है। विद्वान् का आदर करनेसे समस्त गुणों का स्वतः ही आदर हो जाता है। इसीसे समाज का तथा उसकी भावी पीढ़ी का कल्याण हो सकता है।
___ अब समय आ गया है । पूज्य पंडितजीके शोध कार्योंका निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किए जाने की आवश्यकता है। इसके बिना न तो एक मक साधक विद्वान्के समर्पित जीवनके प्रति सामाजिक न्याय होगा और न ही जैन विद्याके प्रति समाज की श्रद्धा-भक्ति की अभिव्यक्ति ही। भले ही पूज्य पंडित महेन्द्रकुमारजीकी आर्थिक विपन्नता उनकी कुशल न्याय-प्रतिभा की अवरोधक नहीं बन सकी, किन्तु यह सत्य है कि जिस समाजके उत्थानके लिए वे जिए और मरे और अपनी अन्तिम आहुति भी दे डाली उस समाजने उनका साथ नहीं दिया, यहाँ तक कि उनकी मृत्युके बाद अल्पावधिमें उन्हें सर्वथा भुला दिया। जैन विद्या, विशेषतया जैन न्यायशास्त्र को उन्होंने आलोक प्रदान किया किन्तु उन्हें आलोकमें लाने का किसीने प्रयत्न नहीं किया । वे अपनी साधनाके आलोकसे स्वयं आलोकित हए । किन्तु हमें हर्ष है कि उनकी मृत्युके बाद इस स्मृतिग्रन्थके माध्यमसे उनका स्मरण किया।जा रहा है।
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