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२/ जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : २३
संस्कृत कविके रूपमें पण्डितजी
बहुत कम लोग जानते हैं कि पं० महेन्द्रकुमारजी संस्कृतमें कविता भी करते थे। भले ही वे कविमंचोंसे उनका प्रसारण नहीं करते थे किन्तु अपने ग्रंथ-सम्पादन-कालमें जब वे प्रसंग प्राप्त ग्रन्थ का सम्पादनादि कार्य समाप्त करते थे, तब भावविभोर होकर वे अपने विद्या गुरुओंका स्मरण कर उन्हें आदराञ्जलि प्रदान करते थे। उनकी वही भावना संस्कृत-कविताके विविध छन्दोंमें स्फुरायमान हो उठती थी।
पण्डितजी अपने गुरुतुल्य श्रीमान् पं० गणेशप्रसादजी वर्णी, गुरुवर पं० जीवन्धरजी शास्त्री, इन्दौर एवं पं० वंशीधरजी शास्त्री, इन्दौर, ज्येष्ठभातके समान पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई तथा साहित्यरसिक सेठ मुसद्दीलालजीके प्रति वे सदैव विनयावनत रहते थे। अतः इनके सहायता कार्योंके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु उन्होंने संस्कृतके विविध छन्दोंमें कुछ श्लोकोंका प्रणयन किया था। यथा--
"श्रीजैनसिद्धान्तमहोदधिर्मे समग्रसिद्धान्तगुरुश्चकास्ति । वंशीधरो जैनकुलावतंसी हंसीयतो न्यायनये जनोऽयम् ॥ स न्यायालंकारश्चंचत्स्याद्धादवारिधिर्धीमान् । वाग्देवीनर्मज्ञो मर्मज्ञः कर्मकाण्डस्य ॥ तस्याद्य वरिवस्यायामुपहारधिया मया । सम्पाद्य न्यायकुमुदोत्तरार्धनिदमयंते ।
। ( न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भा० )
सम्पादक प्रशस्तिः भजति सागरमण्डलमुद्धरे सुकृतिभिः 'खुरई' विकसत्पुरे । सुपरवार जवाहरलालतः समजनिष्टः 'महेन्द्रकुमारकः' ॥ १॥ कवीनाश्रितबीनाख्यनगरे धर्मदासतः । नाभिनन्दनसद्विद्यालये संस्कृतशिक्षणम् ॥ २॥ प्रारम्भिकमुपादाय विशेषाधिजिगीसया। विद्वत्सुन्दरमिन्दूरविद्यालयमवाप्तवान् ॥ ३ ॥ वंशोधरात् धर्ममधीत्य 'जीवन्धराच्च' तर्क श्रमतः सतर्कम् । स्याद्वादविद्यालयमेत्य तस्मिन्नश्रान्तमश्राम्यमहं चिराय ॥ ४ ॥ न्यायमध्यापयन्नन्तेवासिनोऽपि निरन्तरम् । अभूवमुत्तमश्रेण्या न्यायाचार्यस्ततः परम् ।। ५ ।। गवेषणापूर्णधियेह टिप्पणीतिहाससम्यक्तुलना मया श्रमाम् । विलिख्य तत्रानवधानदूषणं सुधीजनः शोधयितेत्युपेक्ष्यते ॥६॥
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