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१८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सामान्य का स्वरूप, अर्थके उत्पादादित्रयात्मकत्व का समर्थन, अपोहरूप सामान्य का निरास, व्यक्ति से भिन्न सामान्य का खण्डन, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन-योगि-मानसप्रत्यक्ष निरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन, नैयायिक के प्रत्यक्ष का समालोचन, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का लक्षण आदि विषयों का विवेचन किया गया है। इस प्रकार इस भागमें प्रत्यक्ष प्रमाण का सांगोपांग वर्णन किया गया है। ७-न्यायविनिश्चयविवरण (द्वितीय भाग)
प्रस्तुत भाग का प्रकाशन भी काशी स्थित भारतीय ज्ञानपीठसे सितम्बर १९५४ ई० में किया गया। इस खण्डमें अनुमान-प्रवचन-प्रस्तावों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
इस खण्डमें ४० पृष्ठों की तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक प्रस्तावना, भट्टाकलंक द्वारा विरचित न्यायविनिश्चय की संशोधित कारिकाएँ तथा उनकी क्रम संख्या का निर्धारण (प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव से सम्बन्धित १६८१ कारिकाएँ, द्वितीय-अनुमानके प्रस्तावसे सम्बन्धित २१७३ कारिकाएँ तथा तृतीय प्रवचन प्रस्तावसे सम्बन्धित ९५३ कारिकाएँ ), २५ पृष्ठों तथा मूल भाग आदिके कुल मिलाकर ४५७ पृष्ठोंमें विस्तृत यह भाग विशेष महत्वपूर्ण है। क्योंकि जैनन्याय-दर्शन की उत्पत्ति तथा इतर दार्शनिक विचारधाराओंसे उसके वैशिष्ट्य का निदर्शन प्रस्तावनामें विशेष रूपसे किया गया है।
इस संस्करण की विद्वत्जगत् में मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की गई। डॉ० हीरालाल जैनने लिखा है कि"भारतीय न्याय-साहित्यमें अकलंकके ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । उसके अब तक जिन ग्रन्थों का पता चला है, उनमें निम्नलिखित ग्रन्थ पूर्णतया न्याय-विषय के हैं--(१) लघीयस्त्रय, (२) प्रमाणसंग्रह, (३) न्यायविनिश्चय एवं (४) सिद्धिविनिश्चय । इन सभी ग्रन्थों का आधुनिक ढंग से पं० महेन्द्रकुमारजीने सम्पादन किया है। इनके सम्पादनमें उन्होंने जितना श्रम किया है तथा अभिरुचिपूर्वक विद्वत्ताका परिचय दिया है।"
भारतीय दर्शनशास्त्रके धुरीण विद्वान् डॉ० सात्करी मुखर्जीने उक्त ग्रन्थके अपने फोरवर्ड में इसके सम्पादन-कार्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।
इस विषयमें पं० दलसुरा भाई मालवणियाँके ये विचार भी पठनीय है--उनके अनुसार जैन दार्शनिक साहित्य की ही नहीं, किन्तु भारतीय दार्शनिक साहित्य की दृष्टिसे आचार्य अकलंक की कृतियों की विवेचना आवश्यक है। तथा इनकी कृतियोंका पं० महेन्द्रकुमारजीके सम्पादन-कार्यको भी इन्होंने बहुत प्रशंसा की है।
धर्मकीतिके मन्तव्यों का खण्डन व्योमशिव, जयन्त, वाचस्पति, शालिकनाथ आदिने किया है और विज्ञानवादके विरुद्ध वास्तववाद को पुनः प्रस्थापित करने का प्रयत्न भी किया है किन्तु आचार्य अकलंकने वास्तववाद को सिद्ध करने के लिए धर्मकीत्ति का जो खण्डन किया है, वह पूर्वोक्त सभी आचार्योंसे अधिक मार्मिक और तर्कपूर्ण होनेके साथ ही दूसरोंकी तरह पूर्वपक्ष की कुछ ही दलीलों तक सीमित न रहकर धर्मकीर्तिके समयके दर्शन को व्याप्त कर लेता है । इस दृष्टिसे कहना होगा कि भारतीय दार्शनिकोंमें धर्मकोर्ति का समर्थ प्रतिस्पर्धा यदि कोई है, तो वह अकलंकदेव ही है। अतएव भारतीय दर्शनके क्रमिक-विकास में धर्मकीतिके समान अकलंक भी युग-विधाता है। इस दृष्टिसे अकलंकके ग्रन्थों का विशेष महत्त्व है और उनका अत्याधुनिक शैलीसे प्रकाशन वांछनीय है।
धर्मकीतिके टीकाकारोंमें प्रज्ञाकरका अद्वितीय स्थान है। न्याविनिश्चयके विवरणमें वादिराजने
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