________________
२ / जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : ११ प्राचीन उपनिषदों - बृहदारण्यक, छांदोग्य की भाषा उस समयकी कौरवी भाषा थी, जिसे कौरवी संस्कृत कह लीजिये । उसकी प्राकृत और अपभ्रंशका क्या रूप था, यह कहा नहीं जा सकता । आज हमारी हिन्दी उसीका साहित्यिक रूप है । इसका प्राचीनतम रूप कुछ रूपमें दविखनी-हिन्दी के गद्य-पद्य में पंद्रहवी सदी तक जाता 1 कौरवीका विशाल क्षेत्र बिजनौर से फीरोजपुर तक फैला हुआ है । वहाँ बड़े गाँवों तकमें परम्परागत परिवार मिलते हैं, कस्बों तकमें जैन मंदिर होते हैं, जिनमें कुछ न कुछ हस्तलिखित ग्रंथ रहते हैं । उनका अभी अनुसंधान नहीं हुआ है, उन्हें अगरचन्द नाहटा जैसे धुन पक्के पुरुष से वास्ता नहीं पड़ा । इस क्षेत्रमें कौरवी प्राचीन गद्य-पद्य जैन ग्रंथोंके रूपमें मिल सकते है ।
जैन जीवित परम्पराके रूपमें हमारे पास कितनी समृद्ध सामग्री मौजूद है, इसे हम संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिसे नहीं देख सकते । आचार्य महेन्द्रके अभावका भी मूल्यांकन वह दृष्टि नहीं होने देगी । हिन्दू शब्दका आजका प्रयोग भी इस संकीर्णताका एक कारण है । हिन्दू शब्द कभी एक धार्मिक सम्प्रदाय के लिए हमारे यहाँ प्रयुक्त नहीं होता था । यह हमारे विशाल देशके लोगों और उनकी संस्कृति के लिए प्रयुक्त होता था । ब्राह्मण, बौद्ध, जैन सभी 'हिन्दू' कहे जाते थे। आज भी चीन या जापानमें भारतीय बौद्ध इन्दो ( हिन्दू ) हैं । रूस में सभी भारतीयोंको इन्दुस' कहा जाता है। यह सांस्कृतिक एकता हमारे भेद-भावको मिटाने के लिए उद्यत है । श्रमण-ब्राह्मण परंपरा हमारी संस्कृति की पूरक है ।
महेन्द्रजी दिगंबर जैन - कुलमें पैदा हुए थे, पर यह श्वेतांबर - दिगंबरकी लीक पीटनेवाले नहीं थे; एक सच्चे विद्वान्की तरह नाना रूपोंमें प्रवाहित हमारी कृतियों तथा सुकृतियों के साथ ममत्व रखते थे । कुछ ही दिनों पहले उन्होंने श्रमण संस्कृतिपर एक विचारपूर्ण लेख लिखा था ।
तिब्बतकी यात्राओं से लौटकर आते समय महेन्द्रजी से मेरा संपर्क स्थापित हुआ । मेरे सामने ही उनका स्पृहणीय विकास होता रहा, उनके सपने साकार रूप धारण करते गये । उसके साथ उनकी जिज्ञासा और योग्यताका कलेवर बढ़ता गया । उनसे बहुत आशा थी । शरीर देखने में स्वस्थ मालूम होता था, इसलिए कभी मनमें कल्पना भी नहीं हुई थी कि ७०-८० से पहले वह अपने काम से उपराम लेंगे । उस आयु तक पहुँचकर वह कितना काम करने में सफल होते। पर मनचेती मनमें ही रह गयी । महेन्द्र बिना पूरी तरह खिले ही मुर्झा गये ।
( सरस्वती इलाहाबाद १९५९ से साभार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org