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१० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
हुए थे. 1
के और भी गद्य ग्रंथ मिल सकते हैं । जहाँ वह " प्रमाणविनिश्चय" को तिब्बतीसे उद्धार करने में लगे वहाँ अपभ्रंशकी ओर भी ध्यान रखते थे ।
अनुदार अर्थ में वह जैन नहीं थे । वह भलीभाँति समझते थे कि जैन धरोहर के रूपमें भारतीय संस्कृतिकी ऐसी अनमोल निधियाँ सुरक्षित हैं, जो जैनोंके अभाव में सदा के लिए विलुप्त हो जातीं । विद्वान् जानते हैं, हमारे देश में हमारी भाषाओं का रूप वैदिक भाषा से पालि, प्राकृतों, अपभ्रंशोंके रूपमें होते-होते आजकी भाषाओं में विकसित हुआ । ब्राह्मणों के वाङ्मयको देखने से मालूम होता है कि केवल संस्कृत ही सर्वदा सर्वेसर्वा रही । उन्होंने बीचकी लोक भाषाओंके लोक या शिष्ट साहित्यकी रक्षा नहीं की । अभी हाल तक संस्कृत पंडित मंडली उन्हें “भाखा” कहकर तिरस्कृत करती थी । ब्राह्मण भाषा कवियोंने अपने समय में प्राकृत और अपभ्रंशमें भी रामायण और महाभारतको भाषानिबद्ध किया होगा, तीर्थोंके एकादशी आदिके माहात्म्य बनाये होंगे । पर उन्हें ब्राह्मण पुरोहितों और पंडितोंने भाषाके साथ मर जाने दिया । क्यों ? इसीलिए कि वह संस्कृत के सामने किसीकी सत्ता नहीं स्वीकार करते थे । जैन और बौद्ध भी इसके बारेमें दूसरा ही भाव रखते थे । उनके लिए प्राकृत या अपभ्रंश संस्कृत से कम महत्त्व नहीं रखती थी। तीर्थंकर महावीर के उपदेशोंको वह पालि-काळ ( ६००-१ ई० पू० ) में लिपि-बद्ध नहीं कर सके थे, जैसा कि बौद्धोंके प्राचीनतम सम्प्रदाय ने किया । प्राकृत-कालमें लिपिबद्ध होनेसे श्रमण महावीरकी वाणी प्राकृत रूपमें ही हमारे सामने मौजूद है। उसके अतिरिक्त और भी विषयों पर प्राकृत में ग्रंथ और पुस्तिकायें, व्रतकथायें भी बनीं। सबको सुरक्षित रखना संभव नहीं, पर कितनों को उन्होंने सुरक्षित रक्खा ।
जब सुबन्धु और दंडी के समय अपभ्रंश भाषाका आरंभ हुआ तो जन-साधारण के लिए उसमें ग्रंथ लिखे जाने लगे । बारहवीं - तेरहवीं सदीमें अपभ्रंशके समाप्त होनेपर उनका उपयोग साधारण जनताके लिए नहीं रह गया, तो भी जैन उपाश्रयों और भंडारों से उनको बाहर नहीं फेंका गया। आज वह हमारे लिए बहुमुल्य निधि है, भाषा और तत्कालीन संस्कृतिके समझने के लिए अनुपम साधन हैं । ऐसी निधि जिस संप्रदाय ( जैन ) ने सुरक्षित की, उसके महत्त्व से कैसे इन्कार किया जा सकता है । संस्कृतिमें सांप्रदायिकता का स्थान नहीं है । वस्तुतः संस्कृति ही क्षण-क्षण परिवर्तित परिवर्द्धित होते हुए भी स्थायी और मूल्यवान् वस्तु है । वही हमें बाँधे हुए हैं। पर, अब भी हमारे में से कितनोंका दृष्टिकोण उदार नहीं है । तभी तो हमारे हिन्दी साहित्य के इतिहासकार सैकड़ों सुन्दर जैन काव्यों में से किसीका उल्लेख नहीं करते । हालमें बौद्धोंके प्रति वह संकीर्णता बहुत हद तक दूर हुई है । अब चौरासी सिद्धों और उनकी कृतियोंकी चर्चा हर एक हिन्दी के विद्वान् के मुख पर है ।
राजस्थान और गुजरातके पुस्तक - संग्रहालयोंके अनुसंधान ने बतलाया है, कि वहाँकी साहित्यिक परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आई है और वह जैनों के प्रयास से ही । बुन्देलखंड में जैन बराबरके निवासी रहे, और अपनी जीविकाके कारण साक्षर होते रहे । अपभ्रंश से अक्षुण्ण सम्बन्ध स्थापित करनेवाली कड़ी -- बुंदेली साहित्य - वहाँके जैन मंदिरों और समाज में जरूर मिलना चाहिए । महेन्द्रजीसे इसके बारेमें बात हुई थी । महेन्द्रजी इसके महत्त्वको भली-भाँति समझते थे । अपभ्रंशके साथ हमारी आजकी भाषाओं में बहुत कम अविच्छिन्न सम्बन्ध मिलता है । हिन्दी क्षेत्र में राजस्थानीके बाद केवल मैथिली ऐसी है, जिसके यशस्वी कवि विद्यापति ने दोनोंमें कविता की है । विस्तृत गवेषणा करनेपर जैन ग्रंथों द्वारा बुन्देलीका भी ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो जाये, तो कोई अचरज नहीं ।
जो अपभ्रंश आज साहित्यिक रूपमें प्राप्य है, वह अधिकतर कध्यदेशीया ( कन्नोजिया ) अपभ्रंश है ।
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