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६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
संवत् २०१२ के भादों-क्वाँरके ये वह दिन थे जब पूज्य बाबाजी बुन्देलखण्ड छोड़कर पारस प्रभुके पादमलमें अपनी सल्लेखना-साधनाके लिये जा रहे थे। मार्गमें गयामें उनका १९५३ का चातुर्मास हुआ। वहींसे उपरोक्त पत्र लिखा गया । वहींसे लिखा हुआ एक और पत्र पण्डितजीके नामका प्राप्त हुआ है।
उन दिनों पं० महेन्द्रकुमारजी भारतीय ज्ञानपीठ छोड़कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें आ चुके थे । जैनदर्शनको उद्योतित करनेवाली अपनी अमर कृतिका सृजन वे कर चुके थे, परन्तु शायद उसके प्रकाशनमें कुछ बाधा उनके सामने रही होगी। कहीं किसीने इस बारे में उन्हें निराश किया होगा। उधर स्याद्वाद विद्यालयके अधिष्ठाता-पदसे भी, जातिवादके जहरके कारण, वे उपराम हो चुके थे। उनकी ऐसी मनस्थितिमें उन्हें वर्णीजीने इन शब्दोंमें साहस दिलाया-- श्रीमान् पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य
योग्य दर्शनविशुद्धि आपकी कृति जो दर्शन-शास्त्र, जिसके लिखने में आपने अथक परिश्रम किया है, समय पाकर चन्द्रवत प्रकाशित होगी। मनमें अणुमात्र भी पश्चाताप न करना। जो, कोई भी आदर करने वाला नहीं। सर्व कार्य समय पाकर ही होते हैं।
आपके चित्तमें जो हो सो करना। यदि अधिष्ठाता-पदसे ग्लानि है तो छोड़ देना, परन्तु सामान्य उपद्रव हों तब मत त्यागना । अथवा आपको जो रुचे सो करना । हम उसके रोकने वाले कौन ? आजकल एक अभिप्राय होना कठिन है। पंचम काल है। असंख्यात लोक प्रमाण कषाय हैं।
हमारी भावना तो आप लोगोंके उत्कर्षको रहती है। इसके सिवाय कर ही क्या सकते हैं ? परमार्थसे तो कर हो नहीं सकते, किन्तु व्यवहारसे कभी करनेमें असमर्थ हैं। आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी जो मैंने सर्व संस्थाओंसे त्यागपत्र दे दिया है। आ० सुदी ५, सं० २०१०
___ आपका शुभचिन्तक
गणेश वर्णी इस प्रकार पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य के जीवनको, यदि हम पूज्य वर्णीजीके उपयुक्त पत्रोंके संदर्भमें देखें तो सहज ही सिद्ध होगा कि न्यायाचार्यजी एक उत्कृष्ट और धर्मानुकुल, सरल व्यक्तित्वके धनी थे । पूज्य श्री गणेशप्रसादजी जैसे युग-पुरुष महात्माका इतना विश्वास, ऐसा स्नेह जिसे प्राप्त रहा हो वह निश्चित ही एक प्रामाणिक श्रावक होना चाहिये। बाबाजीके ये पत्र महेन्द्रकुमारजीकी श्रेष्ठताके प्रमाणपत्र है।
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