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२/जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : ५ श्रीयुत महाशय महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य,
योग्य दर्शनविशुद्धि। आदिपुराण यदि पूर्ण छप गया हो तो बाबू रामस्वरूप बरुवासागरके नामसे भेज देना । हम कार्तिक सुदी पूर्णिमा तक सोनागिरि पहुँच जावेंगे। विशेष क्या लिखें।
धर्मका मर्म जिसके ज्ञानमें आ गया उसके शत्रु-मित्र समान हैं।
अभी तो कतिपय मनुष्योंकी प्रवृत्ति है कि "अपनी शान रह जावे, दूसरा कोई चाहे गर्त में जाये ।" मेरी सम्मति तो यह है कि आपने ज्ञान पाया है तब स्वप्नमें भी किसीको शत्रु न समझना ।
जिस चिन्तनासे संक्लेश हो वह चिन्तना किस काम की ? ज्ञानका फल "उपेक्षा" भी है। अज्ञान-निवृत्तिकी अपेक्षा उपेक्षा बहुत मूल्य रखती है। क्या कहें, जन्म बीत गया परन्तु शान्तिका उदय न आया। इसमें किसीका अपराध नहीं। हमारी मोहकी बलवत्ता है जो अद्यावधि शान्तिको तरसते हैं ।
अस्तु, जिसमें आपको शान्ति मिले वही कार्य करना। फाल्गुन सुदी ६, सं० २००७
आपका शुभचिन्तक
गणेश वर्णी ऐसा लगता है कि पण्डितजीका जीवन सुगम नहीं रहा । उनके सामने अवश्य कोई ऐसी परिस्थिति आई होगी जिससे उनके मनमें अस्थिरताका अँधेरा व्याप्त हआ होगा। शायद ऐसी ही किसी बेलामें वर्णीजीने बहुत हिम्मत दिलानेवाला एक पत्र अपने इस प्रिय शिष्यको लिखा । श्रीमान् पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य,
दर्शनविशुद्धि । पत्र आया, वृत्त जाने । हमको कोई चिन्ता नहीं। चिन्ता यह रहती है कि विद्वान् लोग निश्चिन्त रहें क्योंकि जगत्का सद्व्यवहार इनके ऊपर रहता है। आप निश्चिन्त रहिये ।
वह वस्तु आपको मिलो है जो असंख्य द्रव्यसे नहीं मिलती। पण्डित लोग एक मत हों यह असम्भव है। जिस चक्रमें जगत् रहता है, वे भी उसीमें हैं। मात्र ज्ञान अधिक है। इनके ज्ञान है, किसीके धन है। किसीके अज्ञान है । मूल वस्तुके सद्भावमें तीनों ही कल्याणके पात्र हैं। हम क्या लिखें? हम भी अपनी गणना इसी चक्रमें मानते हैं। अतः आप आनन्दसे जीवनयापन करो।
जैन साहित्यका विकास इन महानुभाव पण्डितोंसे होना दुर्लभ नहीं, परन्तु इनकी आभ्यंतर दृष्टि ही नहीं है । खेद इस बातका है कि कूपमें ही भांग पड़ो है । किसे दोष दें ? गया, भाद्रपद वदो २,सं० २०१०
आपका शुभचिन्तक गणेश वर्णी
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