________________
१४४
द्विर्घातकोखण्डे ॥ १२ ॥ पुष्कगर्थे च ॥ १३ ॥ प्राङ् मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ १४ ॥ आर्या म्लेछाश्च ॥ १५॥ भातैावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः॥१६॥ नृस्थिती परापरे त्रिपन्योपमान्तर्मु ते ॥ १७ ॥ तियायोनीनां च ॥ १८ ॥
कि यहां कोई विद्वान बहुत से नये सूत्र अपने आप बना करके विस्तार के लिए रखते हैं । यह उनका कथन संभवतः सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ को लक्ष्य में रखकर हो सकता है; क्योंकि उसमें इस सूत्र के बाद १० सूत्र ऐसे हैं जो श्वे. सूत्र पाठ में नहीं ।
और उसके बाद के नं० २४ और २५ वें सूत्र भी भाष्यमान्य ११ वें सूत्र के भाष्यवाक्य ही हैं। स. रा० के २६ से ३२ सूत्र भी अधिक ही हैं । स० का तेरहवां सूत्र लो० में तोड़ कर दो बना दिया गया है। यहां अधिक सूत्रो के पाठ के लिये स. रा० को देखना चाहिए ।
, भार्या हि शव -भा. हा० । २ परार-रा. लो। ' ३ तियायोनिजानां च -स. रा. लो० ।