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स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ॥२०॥ म्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः ॥ २१ ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२२॥ वाय्वन्तानामेकम् ॥ २३ ॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २४ ॥ संज्ञिन: समनस्काः ॥२५॥ विग्रहगतौ कर्मयोग. ॥२६॥ अनुश्रेणि गति ॥२७॥ अविग्रहा जीवस्य ॥२८॥ विग्रहवती च ससारिण: प्राक् चतुर्म्य ॥२९॥ एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३०॥
१ -तदर्थाः -स. रा. लो। 'तदर्थाः ' ऐसा समस्तपद ठीक नहीं इस शंका का समाधान अकलङ्क और विद्यानन्द ने दिया है। दूसरी ओर श्वे० टीकाकारों ने असमस्त पद क्यो रखा है इसका खुलासा किया है।
२ वनस्पत्यन्तानामेकम् -स. रा. लो।
३ सिद्धसेन कहते हैं कि कोई सूत्र में 'मनुष्य' पद अनार्ष समझते हैं।
. सिद्धसेन कहते हैं कि कोई इसके बाद 'अतीन्द्रिया: केवलिनः' ऐसा सूत्र रखते हैं।
५ पुकसमयाऽविग्रहा -स. रा. को।