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योगशास्त्र. चवे , तथा दश दहाडासुधि बे नाडीमा रहेलो, अने ते पनी संचार करतो मरण सूचवे .
दशादं तु वदन्निंदा, वेवोगरुजे मरुत् ॥
श्तश्चेतश्च यामाध, वदन लानार्चनादिकृत् ॥ ५॥ अर्थः- दश दहाडा सुधि चंजनाडीमांज वदेतो वायु, उद्वेग श्रने रोग माटे थाय , तथा अरधा पोहोरसुधि एक बीजी नाडीमां जतो, लाज श्रने पूजा श्रादिकमाटे थाय.
विषुवत्समयप्राप्ती, स्पंदेते यस्य चतुषी॥
अहोरात्रेण जानीयात, तस्य नाशमसंशयं ॥ ६ ॥ अर्थ:- तुल्य रात्रि दिवसनो संगम होते बते, जेनी श्रांखो फरके बे, तेनो एक रात्रि दिवसमां निश्चयें करीने नाश थाय जे. तथा,
पंचातिक्रम्य संक्रांती, मुखे वायुर्वदन दिशेत् ॥
मित्रार्थदानिनिस्तेजो, ऽनर्थान सर्वान्मृति विना ॥७॥ अर्थः- वायुनां पांच संक्रमण पनी जो मुखमां वायु वहे, तो मित्र, धन विगेरेनी हानि, निस्तेजपणुं,तथा मृत्यु शिवाय सर्व श्रनों थाय. तथा
संक्रांतीःसमतिक्रम्य, त्रयोदश समीरणः॥
प्रवदन वामनासायां, रोगोधेगादि सूचयेत् ॥ ७ ॥ अर्थः- तेर संक्रांति पनी चउदमी संक्रांतिमां, डाबी नासिकामां जो वायु वहे, तो रोग अने उठेग श्रादिक सूचवे . तथा,
मागशीर्षस्य संक्रांति, कालादारभ्य मारुतः॥
वहन पंचाहमाचष्टे, वत्सरेऽष्टादशे मृति ॥ ए॥ अर्थः- मागसर महीनानी संक्रांतिथी मांडीने, जो पांच दिवससुधि (एकज नाडीमां) पवन वहे, तो अढार वर्षे मृत्यु थाय. तथा,
शरत्संक्रांतिकालाच, पंचाहं मारुतो वदन् ॥
ततः पंचदशाब्दाना, मते मरणमादिशेत् ॥ ७० ॥ अर्थः- शरदनी संक्रांतिथी पांच दिवससुधि जो एकज नाडीमां पवन वहे, तो पंदर वर्षने अंते मरण सूचवे ; तथा,