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श्रीमद्देवेन्द्रसूरिशेखरसन्दृब्धः
॥ श्रीशाश्वतचैत्यस्तवः॥
सिरिउसहवद्धमाणं चंदाणणवारिसेणजिणचंदं ।
नमिउं सासयजिणभवणसंखपरिकित्तणं काहिं ॥१॥ जोइवणेसु असंखा मगकोडि बिसयरिलरकभवणेसु ।
चुलसीलरक सगनवइसहस्स तेवीसुवरिलाए ॥२॥ बावन्ना नंदीसरम्मि चउचउर कुंडले रुयगे।
इअ सट्ठी चउबारा तिदुवारा सेमजिणभवणा ॥३॥ पत्तेयं बारेसु अ मुहमंडव-रंगमंडवे तत्तो।
मणिमयपीटं तदुवरि थूमे चउदिसिसु चउ पडिमा ॥४॥ तत्तो मणिपीढजुगे असोग-धम्मज्झओ अ पुरस्करिणी ।
पइभवणं पडिमाणं मज्झे अट्टत्तरसयं च ॥५॥ पडिमा पुण गुरुआओ पणधणुसय लहुय सत्तहत्थाओ।
मणिपीढे देवच्छंदयम्मि सीहासणनिसन्ना ॥६॥ जिणपिढे छत्तधरा पडिमा जिणभिमुह दुन्नि चमरधरा ।
नागा भूआ जरका कुंडधरा जिणमुहा दो दो ।। ७ ॥ सिरिवच्छनाभिचुच्चुअ पय-कर-केस-महि-जीअ-तालुरुणा।
अंकमया नह अच्छी अंतो रत्ता तहा नासा ॥८॥ ताराइरोमराइ अच्छिदला केसभमुहरिट्ठमया ।
फलिहमया दसण वयरमय सीस विदुममया उट्ठा ॥९॥ कणगमयजाणुजंघा तणुजट्ठीनाससवण भालोरू ।
पलिअंकनिसण्णाणं इय पडिमाणं भवे वण्णो ॥१०॥ भवणवणकप्पजोइस उववायभिसेय तह अलंकारा ।
ववसायसुहम्मसहा मुहमंडवमाइ छकजुआ ॥ ११ ॥ तिदुआरा पत्ते तो पण समथूम सहि बिंबेहिं ।
चेइयबिंबहिं समं पइभवणं बिंब असीइसयं ॥ १२ ॥