SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं. ४०में पूज्यपाद आचार्यका स्मरण करते हुए बतलाया है कि उनका प्रथम नाम देवनन्दि था, वादको बद्धिकी प्रकर्षताके कारण वे जिनेन्द्रबद्धि कहलाये और उनके चरणोंकी देवताओंने पूजा की, इसलिये वे पूज्यपाद नामसे प्रसिद्ध हुए। देवनन्दिका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था। जिनसेन और वादिराज आचार्यने इमी संक्षिप्त नामसे उनका स्मरण किया है। इनके सम्बन्धमें भी विदेहक्षेत्रमें जाकर श्रीमन्दिरम्वामीके दर्शन करनेकी अनुश्रुति पाई जाती है । श्रवणबेलगोलाके लेख नं. १०५में इनका स्मरण करते हुए लिखा है श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधर्द्धिर्जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूनगात्रः । यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावात् कालायसं किल तदा कनकी चकार ।। ___ जो अद्वितीय औषध ऋद्धि के धारक थे, विदेहक्षेत्रके जिन भगवान के दर्शनसे जिनका शरीर पवित्र हो गया था और जिनके चरण धोए जलके म्पर्शसे एक समय लोहा भी मोना बन गया था, वे पूज्यपाद मुनि जयवन्न हो । ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्राचार्यने देवनन्दिका म्मरण करते हुए लिग्या है--- अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाचित्तसंभवम् । कलङ्कमहिनां सोऽयं देवनन्दी नमम्यते ।। जिनके वचन प्राणियोंके काय, वाक् और चित्तसम्बन्धी दोषोंको दूर कर देते हैं उन्न देवनन्दी आचार्यको नमस्कार है । __यह कथन उनकी कुछ रचनाओंकी ओर संकेत करता है। पूज्यपाद बैदाकशास्त्रमें निष्णात थे और उन्होंने उस पर भी ग्रन्थ रचना की थी अतः उसके प्रयोगसे शारीरिक दोप दूर होते हैं। उन्होंने जैनेन्द्र व्याकरणकी रचना की थी. अतः आठ वैयाकरणों में उनकी गणना की गई है । इससे उनके व्याकरण शास्त्रसे वचनके दोष दूर होते हैं । इनके सिवाय उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि नामकी टीका रची थी तथा समाधितंत्र और इप्टोपदेश जैसे आत्मप्रबोधक प्रकरण रचे थे। इनके अध्ययनसे चित्तवृत्तिके दोषोंका शमन होता है। मुमुक्षओंको उनके ये तीनों ग्रन्थ अवश्य पढ़ने चाहिये । उन पर कुन्दकुन्दाचार्यकी वाणीका प्रभाव स्पष्ट रूपसे झलकता है । उनकी लेखनी बड़ी परिमार्जित और उद्बोधक थी । भट्ट अकलंकदेव अकलंकदेव नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। यहां प्रसिद्ध जैन दार्शनिक भट्टाकलंकदेवसे प्रयोजन है । जैसे समन्तभद्र स्याद्वादविद्या के प्रतिष्ठाता थे वैसे अकलंकदेव जैन न्यायशास्त्रके
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy