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________________ - REMESH BRE G ARDIRETRIES ER - .. - शिवकोटि समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलंकदेव, विद्यानन्दि और योगीन्द्रदेव प्रभृति सभी आचार्यों ने तथा राजमलजी, बनारसीदासजी आदि विद्वानोंने इनका अनुसरण किया है। आचार्य अमृतचन्द्रके विषयमें तो इतना ही लिखना पर्याप्त है कि मानो इन्होंने भगवान् कुन्दकुन्दके पादमूल में बैठकर ही समयसार आदि श्रुतकी टीकाएं लिखी हैं। चरणानुयोगको पुस्तकारूढ़ करनेवाले प्रथम आचार्य वट्टकेरस्वामी हैं । इनके द्वारा निबद्ध मूलाचार इतना सांगोपांग है कि आचार्य वीरसेन इमका आचारांग नाम द्वारा उल्लेख करते हैं। उत्तर काल में जिन आचार्यों और विद्वानोंने मुनि आचार पर जो भी श्रुत निबद्ध किया है उसका मूल श्रोत मूलाचार ही है। आचार्य वसुनन्दिने इस पर एक टीका लिखी है। भट्टारफ सकल कीर्तिने भी मूलाचारप्रदीप नामक एक ग्रन्थकी रचना की है । उसका मूल श्रोत भी मूलाचार ही है। इसीप्रकार चार आराधनाओंको लक्ष्य कर आचार्य शिवकोटिने आगधनासार नामक श्रुतकी रचना की है। श्रुतके क्षेत्रमें मूल श्रुतके समान इसकी भी प्रतिष्ठा है। श्रावकाचारका प्रतिपादन करनेवाला प्रथम श्रुतग्रन्थ रत्नकरण्डश्रावकाचार है। यह आचार्य समन्तभद्रकी कृति है, जिसका मूल आधार उपासकाध्ययनांग है। इसके बाद अनेक अन्य आचार्यों और विद्वानोंने गृहस्थधर्मके ऊपर अनेक ग्रन्थोंकी रचनाएँ की हैं। प्रथमानुयोगमें महापुराण, पद्मपुराण और हरिवंशपुराण प्रसिद्ध हैं। इनकी रचना भी यथासम्भव परिपाटी क्रमसे आये हुए अंग-पूर्व श्रुतके आधारसे की गई है। जिन आचार्यों ने इस श्रुतको सम्यक् प्रकारसे अवधारण कर निवद्ध किया है उनमें आचार्य जिनसेन (महापुरागके कर्ता) आचार्य रविपेण और आचार्य जिनसेन (हरिवंशपुगणके कर्ता) मुख्य हैं। इस तरह चारों अनुयोगों में विभक्त समग्र मूल श्रुतकी रचना आनुपूर्वीसे प्राप्त अंगपूर्वश्रुतके आधारसे ही इन श्रुतधर आचार्यों ने की है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । जैन परम्परामें पूर्व-पूर्व श्रुतकी अपेक्षा ही उत्तर-उत्तर श्रुतको प्रमाण माना गया है सो मर्वत्र इस तथ्यको ध्यान में रखकर श्रुतकी प्रमाणता स्वीकार करनी चाहिए । ___ कुछ प्रसिद्ध दि० जैनाचार्य सि. र., सिद्धान्ताचार्य श्री पं. कैलाशचन्द्रजी सि० शास्त्री, वाराणसी आचार्य कुन्दकुन्द ___ आचार्य कुन्दकुन्दके सम्बन्धमें एक हिन्दी कविने ठीक ही लिखा है-हुए न हैं न होयगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्दसे । कुन्दकुन्द जैसे मुनीन्द्र न हुए, न हैं और न इस कालमें होवेंगे । श्रवणबेलगोला (मैसूर)के शिलालेखोंमें उनका गुणगान बड़ी श्रद्धासे किया गया है। शिलालेख नं. ५४ में लिखा है MESSPAP mau
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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