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________________ Age n MARIVARKONVrindaviparyayva 4200/ आ १ RANI 4) कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथ ने श्रुतधर - परिचय सिद्धान्ताचार्य श्री पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री, वाराणसी प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः । यह शान्तिभक्तिका वचन है। इस द्वारा प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगों में विभक्त भुतको नमस्कार किया गा है। प्रवाहकी अपेक्षा श्रुत अनादि है। इमकी महिमाका व्याख्यान करते हुए जीवकाण्डमें श्रुतज्ञानकी मुख्यतासे कहा है कि केवलज्ञान और श्रुतज्ञानमें प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है, अन्य कोई भेद नहीं । ऐमा नियम है कि केवलज्ञानविभूतिसे सम्पन्न भगवान् तीर्थंकर परमदेव अपनी दिव्यध्वनि द्वारा अर्थरूपसे श्रुतकी प्ररूपणा करते हैं और मत्यादि चार ज्ञानके धारी गणधरदेव अपनी सातिशय प्रज्ञाके माहात्म्यवश अंग-पूर्वरूपसे अन्त मुहूर्तमें उसका संकलन करते हैं। अनादि कालसे सम्यक् श्रुत और श्रुतधरोंकी परम्पराका यह इस नियम के अनुसार वर्तमान अवमर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर और उनके ग्यारह गणधरोंमें प्रमुख गणधर गौतमस्वामी हुए। भावश्रुत पर्यायसे परिणत गौतम गणधरने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोकी रचना कर लोहाचार्यको दिया। लोहाचार्यने जम्बुम्वामीको दिया। इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पांचों आचार्य परिपाटी क्रमसे चौदह पूर्वक धारी हुए। तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और. धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य परिपाटी क्रमसे ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व आदि दस पूर्वाक धारक तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश धारक हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुम्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य परिपाटो क्रमसे सम्पूर्ण ग्यारह अंगोंके और चौदह पूर्वोक एकदेश धारक हुए। तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों आचार्य सम्पूर्ण आचारांगके धारक और शेप अंगों तथा पूर्वो के एकदेशके धारक हुए। आचार्य धरसेन-पुष्पदन्त-भूतबलि तदनन्तर सब अंग-पूर्वोका एकदेश आचार्य परम्परासे आता हुआ धरसेन आचार्यको प्राप्त हुआ। ये सौराष्ट्र देशके गिरिनगर पत्तनके समीप ऊर्जयन्त पर्वतकी चन्द्रगुफामें निवास करते हुए ध्यान अध्ययनमें तल्लीन रहते थे। इनके गुणोंका ख्यापन करते हुए वीरसेन स्वामीने (धवला पु. १) लिखा है कि वे परवादीरूपी हाथियोंके समूहके मदका नाश करने के लिए भेष्ठ सिंहके समान थे और उनका मन सिद्धान्तरूपी अमृत-सागरकी तरंगोंके समूहसे धुल गया था। वे अष्टांग महानिमित्त शास्त्रमें भी पारगामी थे। वर्तमानमें उपलब्ध श्रुतकी रक्षाका सर्वाधिक श्रेय इन्हींको प्राप्त है। अपने जीवनके अन्तिम कालमें यह भय होने पर कि KOREA meNTraine HypeateninatanaMANtaanaararunimatermannelkamanandslaim LAXMammam
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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