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________________ - - वह तो आस्रव है और जो निर्विकल्प है वह आस्रवरहित है । अन्यत्र जो सराग चारित्र और वीतराग चारित्र ऐसे नाम दृष्टिगोचर होते हैं सो उनका तात्पर्य भी यही है । संक्षेपमें सार यह है कि जो व्यवहार मोक्षमार्ग कहा गया है वह राग ही है । उसके साथ तीन कषायोंके अभावरूप जो शुद्ध परिणति होती है वह मुख्य है । इसलिए मोक्षमार्ग तो एक ही है-निश्चय मोक्षमार्ग । दो प्रकारका मोक्षमार्ग नहीं है। इतना अवश्य है कि उसका कथन दो प्रकारसे किया जाता है । सो इस कथनका प्रयोजन वीतराग परिणतिके साथ रागका सद्भाव दिखाना मात्र है । इस तरह छठे और सातवें गुणस्थानमें जिस तरह दो प्रकारका मोक्षमार्ग बन जाता है उसी प्रकार चौथे और पांचवें गुणस्थानमें भी दोनों प्रकारके मोक्षमार्गकी सिद्धि कर लेनी चाहिए। जहाँ चौथे गुणस्थानमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीका तथा पाँचवें गुणम्थानमें मिथ्यात्वके साथ दो कषायोंका अभाव होनेसे निश्चय मोक्षमार्गकी प्रसिद्धि होती है वहाँ चौथेमें तीन कषायोंका और पाँचवेंमें दो कषायोंका सद्भाव होनेसे निश्चय मोक्षमार्गके साथ व्यवहार मोक्षमार्ग भी घटित हो जाता है । इसप्रकार इतने विवेचनसे यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि निश्चय और व्यवहार ये दोनों मोक्षमार्ग एक साथ प्रगट होते हैं। व्यवहार करते करते निश्चयकी प्राप्ति होती हो ऐसा नहीं है। किन्तु ऐसा अवश्य है कि जितने अंशमें निश्चयकी प्रानि होती है उसके अनुरूप व्यवहार होता ही है और जहाँ पूर्णरूपसे निश्चयकी प्राप्ति हो जाती है वहाँ व्यवहारका सर्वथा अभाव होजाता है । अब इस बानका विचार करना है कि मोक्षमार्गमें एकमात्र निश्चयको निपेधक और व्यवहारको निपेध्य क्यों कहा १ बात यह है कि संसारी जीवके जितना भी व्यवहार होता है वह पराश्रित होनेसे (परको लक्ष्य कर होने के कारण ) बन्धका हेतु है, इसलिए वह प्रतिषेध करने योग्य है और निश्चय ओत्माश्रित होनेसे मोक्षका हेतु है, इसलिए वह प्रति. पंधक है । श्री समयसार कलश १७३ में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि सब वस्तुओंमें जो अध्यवसान होता है उसे जिनेन्द्रदेवने छोड़ने योग्य कहा है सो उस परसे हम ऐसा मानते हैं कि जितना भी व्यवहार है वह सब छोड़ने योग्य है । तथा शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप एक निश्चय ही आश्रय करने योग्य है । इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर आचार्य कुन्दकुन्ददेवने समयसार गाथा २७२. में कहा है कि पूर्वोक्त विधिसे निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनय प्रतिषेध करने योग्य है, क्योंकि जो ज्ञानी निश्चयनयका आश्रय लेते हैं वे निर्वाणको प्राप्त होते हैं । सविकल्पदशासे निर्विकल्प दशाको प्राप्त करनेका यही एक मार्ग है । उत्कृष्ट ध्यानकी सिद्धि भी इसी मार्गसे होती है, अन्य मार्गसे नहीं। कोंके संवर और निर्जरापूर्वक मोक्षप्राप्तिका भी यही मार्ग है, अन्य नहीं । A RRMA RAN
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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