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________________ ५. - . TA stat: सर्वज्ञता प्रो. उदयचन्द्र जी जैन एम. ए., दर्शनाचार्य वाराणसी 'सर्व जानाप्तीति सर्वज्ञः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार सर्वज्ञ शब्दका अर्थ है सपको जानने वाला । 'सर्वज्ञ शब्दमें जो सर्व शब्द है उसका तात्पर्य त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायांसे है। जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायोंको युगपत् हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है यह सर्वज्ञ है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पखंडागम प्रकृति-अनुयोगद्वार (सूत्र ५२)में कहा है सई भयवं उप्पण्णणाणदरिसी....सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार (गाथा ४७)में लिखते हैंजो ज्ञान युगपत सब आत्मप्रदेशोंसे तात्कालिक और अतात्कालिक विचित्र और विषम सब पदार्थों को जानता है उस ज्ञानको क्षायिक कहते हैं। प्रश्न यह है कि जीव नियत स्थान और नियत कालमें स्थित होकर भी त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थो को कैसे जानता है ? यह प्रश्न आचार्योके सामने भो रहा है। अब इस प्रश्नके समाधानस्वरूप प्रकृतमें द्रव्यके स्वरूपका विचार करना है। आचार्य समन्तभद्र उसके स्वरूपका निर्देश करते हुए आप्तमीमांसामें लिखते हैं नयोपनयेकान्नानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभाइभावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।। नैगमादि नयों और उपनयोंके विषयभूत भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालसम्बन्धी समस्त पर्यायोंके तादात्म्य सम्बन्धरूप जो समुच्चय है उसका नाम द्रव्य है। वह एक होकर भी अनेक है। _इसका आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्य वर्तमान पर्यायमात्र न होकर तीनों कालोंकी पर्यायोंका पिण्ड है, इसलिए समप्रभावसे एक द्रव्यके ग्रहण होनेपर तीनों कालोंकी पर्यायोंका ग्रहण हो जाता है । यतः ज्ञानका स्वभाव जानना है, इसलिए वह विवक्षित द्रव्यको समग्र भावसे जानता हुआ उसकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको जान सकता है यह सिद्ध होता है ___ अब इस बातका विचार करना है कि वह विवक्षित क्षेत्रमें स्थित होकर भी तीन लोकवर्ती समस्त पदार्थों को कैसे जानता है ? सो इस प्रश्नका समाधान यह है कि जैसे दीपक विवक्षित क्षेत्रमें स्थित होकर भी क्षेत्रान्तरमें स्थित पदार्थों को प्रकाशता है उसी प्रकार ज्ञान भी स्वक्षेत्रसे भिन्न क्षेत्रमें स्थित पदार्थों को जानता है इसमें कोई बाधा नहीं आती । अमृतचन्द्र आचार्य देवने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें मंगलाचरण करते हुए लिखा है कि वह परम ज्योति (केवलज्ञान) mavad animal
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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