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DESCRIPTIVE CATALOGUE OF AYURVEDIC MANUSCRIPTS Beginning : (comm)
श्रीगणेशाय नमः श्रीराधाकृष्णाय नमः श्रीगुरवे नमः टीका देशभाषा प्रयागादिवासिनाम् अहम् अग्निवेशः अग्निवेशजो है आचार्य सो आख्यया अंजनं प्रथं करोति आख्यया कहें नामता करके अंजन ऐसा जो है ग्रंथता कों करोति कहें करत हो कथंभूतं ग्रंथं सूक्ष्म कै सा है ग्रंथ सूक्ष्म कहें सूक्ष्मप्रकार करके जो है केषां कृते कहे केहके लिये करत हौ भिषजां कृते भिषज जो है वैद्यतिनके लिये कथंभूतानां भिषा अवोधतिमिरछ (राच्छ)न चक्षुषां अवोध जो है अज्ञानता सौ यह जो भवा तिमिर कहें अंधकारता करके आभा(छा)दित है कहें उपे है चक्षुष कहे नेत्र जिनके ? टीका दोषकरजी है रोष कहें कोप रुजां हेतु रुज जो है रोग तिनकर हेतु कहे कारण तत्प्रकोपे तु ते हे दोषके कोपविषे प्रत्येक कहे जुदाजुदाकाल अर्थकर्म इन करजो है हीनयोग मिथ्यायोग
अतियोग सो कारणं कहे कारण है। End : (Text)
अतिविस्तरपुस्तकपाठठप्रतिहस्त (भयादतिहस्य)तया धृतभूरिम(धि)याम् । नयनानलदृड्मित (२३१पचकृतम्भिवजामिदमजनमस्तु मुदे ॥३१॥ चकार चतुरोचितं तदिदमग्निवेशोऽअनंपरोपकृतये कृतं परमिदं रुजां ज्ञापकम् ।। ततः समुदितैः सदा सुकृतराशिभिस्तुष्यता
तुषारगिरिकन्यकापरिवृढः (स)योषित् सुतः ॥३२॥ End : (Comm.)
टीका-जरत अंगारकीनाही लागै तौकहि ये वीछी काटे सह दाह पीडामोह होय ती भोरै सो जानिए बडे बडे जो है ग्रन्थ तिनका जो है हठते हविषे धरा है भय जिन ऐसा सो वैध तिनके आनंद के निमित्त यह अंजननिदान
होय के सा है को जेह विषेदु यशयवतीश २३२ श्लोक की हे है श्री। Colophon : (Text) - इति श्री अग्निवेशाचार्यविरचितं श्रीचकमेथे अंजननिदानं संपूर्णम् ॥