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परिशिष्ट.
मार्ग २ में दुर्जनो करके जिनको तिरस्कार करो जाय जैसे बनके गजको मक्खी डरावे तेसे दुर्जन करते भये, कोई डराव, ताडे कोई ऊपर मूत जाय, थूकै, पन्थर फेंकै, धूर पटकै, पाद जाय, शाप दे जाथ, इन सबको कुछ न गिनते भये. यह देह असत पदार्थोका स्थान है सत नाम मात्र हे यामैं सत असतको अनुभव करके, अपनी महिमाको स्थिति, देख अहंकार, ममकार अभिमान न करके मनको पंडित न करके एकळे पृथोषीमें परिभ्रमण करते भये ॥ ३१॥
अति सकमार हाथ. पांव, हृदयस्थल, विशाल भजा, कंधा. गलो वदन भादि अवयन जिनके स्वभाव हीसे मुन्दर स्वभाव ही की हास, मुन्दर मुख, नवीन कमलदल समान शीतल तापहारक सुन्दर अरुण नेत्र बराबर सुन्दर कपाल, कर्ण, कंट नासिका अत्यंत मुसकान मुखके सदा उत्सवको ता करके पुरकी बनितानके मनमें काम उद्दीप कर आगेसे लंबे कुटिल जटा पार केशनके बहु भारसे शोभित अवधूतनको अनादर करवेवारो मलिन निज शरीर करक जैसे काऊ ग्रहने प्रसो होय तसे दीखत भये ॥३२॥
जा समय भगवान् ऋषभदेवजी लोककों आप साक्षात् विपरानकी नाई योगको करते भये. तिनको जो कुछ किया कम हो सो बडो भयानक भयो ऐसे अजगराकेसे इनमें स्थित होते भये शयन करते भवं भोजन कर जल पावे खाये सोए २ मत दे, विष्टकरके विष्ठामें पंड चेष्टा कर लौट वा विष्ठा करके सब दहके अवयव लिम होने भये ।।
लोकः-स्थित्वैकत्रेच यो धारो मुक्या प्रारब्धकर्म तत्।
देहादिकं मुखं न्यस्वा वृत्तमाजगरे स्थितः ॥१॥ अर्थ:-आजगर बत याको कह है कि जो धीर एक जग स्थित होकर प्रारब्ध कर्म भोग सब देहादिका मुखको त्याग आजगर व्रतम स्थिर रह॥३३॥
बडे आश्रयंका और हषकी बात है कि दिन ऋषभ देवजीके विटाकी पुरभि सुगन्धताकी वाय वा देशको ४० कोसतक मुगधित करती भई ॥३४॥
ऐसे गी मृग काफी चेष्टाकी नाई चल बैं स्थित होय सोवे काकमृगौकीसी नाई चरित रह पीवे खाव मत्र करें ॥ ३५॥
या प्रकार नाना प्रकारका योग चा कर आचरण करें, भगवान कैवल्यपति ऋषभ देवजी निरन्तर परम महा आनन्दको अनुभव कर. सवव्यापक सब जीवनके आत्मा भगवान वासुदेवमें अपने आत्माको एकभाव करके सिद्ध भय है समस्त अथे तामें परिपूर्ण आकाशमें विचरतो मनको नाई देहको बेग होनो दरको देख लेनो छिप जानो औरके कायामें प्रवेश करनो दरकी वस्तुको ग्रहण करनो अपनी इच्छासे चाहे जहां चले जानो ये योगानके एश्वर्य आप साक्षात्प्राप्त है, सो हे परीक्षित उनकी सराहना करते भये ॥३६॥
छठा अध्याय. राजा परीक्षित बोले कि हे भगवन् ! निश्चय है कि आत्माराम योगसे बढे ज्ञानसे जिनके कर्म बीज भुन गये अपनी इच्छासे प्राप्त जो ऐश्वर्य है सो फेर केशदायक नहीं होय है ।। १॥
श्रीशुक ऋषि बोले कि, आपने सत्य को क्योंकि कोई एक बुद्धिमान साक्षात चंचल मनको विश्वास नहीं कर जैसे शट किरात भील विवास कराय जीव इन है तद्वत् मनका विश्वास करनेसे मारो जाय है ॥२॥
सें ही कहा है कि ये मन सावधान नहीं है या कदीबी किसीको सग न कर या मनके विश्वास करनेसे बहुत दिनको करो भयो तप स्खलित होय जाय है ॥३॥
कामको नित्य अवकाश देता है जो बाके पीछे रह उनकोभी अवकाश देता है जो मैत्री करहै योगी उनको ये गति हैं जैसे जाप विश्वास कर ऐसे पतिको पुंश्चली छिनार स्त्री जारनको सावकाश बताय पतिको मरवाय देता है तसे मनवी काम आदि कर योगियों को भ्रष्ट करता है ॥ ४ ॥