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परिशिष्ट
__चो गुरू नहीं है वो सुजन नहीं है वो पिता न है वो माता न है वो देवता न है वो पति न है जो आई भई मृत्युको न छुडाँव वो कुछभी नहीं है ।। १९ ॥
ये मनुष्यकासा आकार का ये शरीर तर्क करये योग्य नहीं है मेरी इच्छासे मैंने धारी है कुछ हम प्राकृत मनुष्य नहीं है सत्त्व मेरे हृदयमें है जहां धर्म है और अधर्म दरमें मैंने पीटसे कर लिया है यासे जो आर्यलोग आर्यावर्त में भये है वो मोको श्रेष्ठ कहते भये शास्त्रमें ऋषभका अर्थ श्रेष्ठ है ॥२०॥
ताते तुम सब मेरे हृदयसे जन्मे हो सो सब मिलकर मुन्दर क्लेश रहित बुद्धि करके बड़े तुह्मारे सहोदर भाई श्री भरतजीको भजन करो सब ग्रजाका भरण पोषण करो येही मेरी शुश्रूषा है ॥२१॥
अव ब्राह्मणोंकी सेवा करनी यांसे वैकुण्ठ होय सो पंच लोकसे कह ॥ चेतन अचेतनोंमें नो सब स्थान वृक्ष श्रेष्ट है. उनसे सर्प श्रेष्ट है उनसे ज्ञान वान जीव श्रेष्ठ है तिनमें मनुष्य श्रेष्ठ है उनमें भूतादिक श्रेष्ठ हैं उनमेंसे गन्धर्व श्रेष्ठ है उनमें सिद्ध श्रेष्ट है उनमें किसर इत्यादिक श्रेष्ठ है ॥ २ ॥
तिनसे अमुर श्रेष्ठ है असुसि देवता श्रेष्ठ है देवतानमें इंद्रादिक श्रेष्ठ है उनसे दक्षादिक श्रेष्ठ है तिनमें ब्रह्माके मुर श्रेष्ठ हैं उनमें शिव श्रेष्ठ है वो भव ब्रह्माके वीर्यसे उनमें ब्रह्मा श्रेष्ठ है ब्रह्मा मेरो भजन करै है मेरे सब ब्राह्मण देवनकी नाई पृज्य है।। २३ ॥
ब्राह्मणके बरावर कोई जीव मात्र नहा है सा हम दखत वाहा ग्रापा मार कहा है जन, ब्राह्मणोंमें श्रद्धा करके अन्दर मुखम्प अनिमें मिष्टान्न हवन कर अधीन जाने ब्राह्मण भोजन कराये है उनमें हम भोजन कर है एसो हम आमहोत्रम का नहीं पात्र है जसो ब्राह्मणोंके भोजन करावनेसे होय है इन ब्राह्मणोकी बदमें ऐसा प्रशंसा लिली कि.
"एषां मूर्ध्नि परं पदं श्रुतिपुटे तीर्थानि भालऽथ मा वाणीयाकत्र करंडनला हदि हरिः कुक्षो तुवेदात्रयः । नाभ्यां पंकज संभवः सुरगणा यद्रामकृप स्थितास्तेऽमी भूमिसुराः शिरोभिरनिशं वंद्यान निंद्या क्वचित् ॥ १॥२४॥
इन ब्राह्मणोंने बहुत सुन्दर वेद रूप मेरा पुरातन शरीर धारयो ६ जिनम य आट गण है पहिली ती परम पवित्र साव गुण चाहिय, शम, दम, सन्य, अनुग्रह, तप, सहनशीलता, अनुभव जन्मज्ञान ये गत्र ब्राह्मणों में रहे है इनस और कोई बड़ो नहीं है ॥२५॥
मोमें भक्ति करबेवार काऊ वस्तुकी जिने चायनाय से ब्राह्मणनकी म्बा अपम्वर्गक स्वामी अनंत परेसे परे जो मै हूं ताके बिना आरम उनको कुछ भी चाहये योग्य नहीं है ।। २६॥
हे पुत्रहो सब स्थावर जंगम जीवमात्रनको क्षणक्षणमें मेरही वे सब स्थान है एस मानकर एकात दशी आपलोगोंको भावना करवे योग्य है यही मेरी पूजन है॥२७॥
मन, वचन, दाट और जितनी इन्द्रीनकी चेष्टा है उनकरके मेरो ही आराधन करनो यही साक्षात पल है मेरे आराधनके विना मोहसे जम कहिये धर्मराजकी फांसीसे छुटबेको समर्थ नहीं है ॥ १ ॥२८॥
श्रीशुकदेवजी बोले कि ऐसे पुत्रनको शिक्षा कर ओ अपनेसे शिक्षित लोक है उनके शिक्षाकं अर्थ महामारी जिनको प्रभाव परम मुहद भगवान ऋपभदेवजी महा शीलवारे सब कर्मस विरक्त महामुनीनका भक्ति ज्ञान वैराग्य लक्षण जाम ऐसो परमहंसनको जो धर्म वाकी शिक्षा करत अपने सौ पुत्रनमें जो बडे परम भागवत भगवजनमें परायण श्रीभरतजी महाराजको पृथिवीकी रक्षाके लिये अभिपेककर आप भवनमें केवल शरीर मात्रको धार उन्मत्तको नाई दिगम्बरभेष धेरै सब केश जिनके विखर रह जो कुछ कर्तव्य हो अपनी आन्मामें आरोपणकर ब्रह्मावर्त जो विठूर देश यहाँस संन्यस्त होय कर चले जाते भए ॥२९॥
जडवत अंधे, गंगे, बहिरे पिशाचवत् उन्मादीकी समाम अवधूस वेष धार कोई पुकारे तो वो जीव नके मध्यमें मौन व्रतक ग्रहण कर चुप हो जाते भए ॥३०॥
जहां तहां पुर, गांव, खान, किसानोंके गांच, पपादिबाटिका, पर्वतके नीचेके आंब, सेना निवासस्थान, गौवनके स्थान, गोपनके स्थान जात्रियों के समूह जहां गिरि, वन, ऋषीनके आश्रम इत्यादिकोंमें