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जैनधर्मपर व्याख्यान.
(0) उसको दुष्ट विचारोंका त्याग करना चाहिये और धन संपदासे मोह छोड़कर चार प्रकारके दान देने में व्यय करना चाहिये। इसको त्यागधर्म कहते हैं ।
(९) उसको चिन्तवन करना चाहिये कि इस संसारमें आत्माके सिवाय किंचित मात्र उसका नहीं है। इसका नाम आकिंचन्य धर्म है ॥
(१०) उसको आत्मध्यानमें लीन रहना चाहिये और अपनी स्त्री तथा अन्य स्त्री का भी त्याग करना चाहिये। इसको ब्रह्मचर्य धर्म कहते हैं ।
हरएक जैनीका यह भी कर्तव्य है कि वह नीचे लिखे हुये बारह विषयोंपर निरंतर द्वादश अनुप्रेक्षा चितवन करे इनको बारह अनुप्रेक्षा कहते हैं
(१) इस संसारमें कोई वस्तु नित्य नहीं है हरएक वस्तु विकार सहित है इसकारण मुझको इससे विघ्न नहीं होना चाहिये और उसको क्षणभंगुर समझना चाहिये । इसको अनित्य अनुप्रेक्षा कहते हैं ।
(२) कष्ट वा मृत्युके समय इस संसारमें मेरी सहायता करनेवाला कोई नहीं है, जैसा मैने बोया है वैसा अवश्य काटना पड़ेगा । इसका नाम अशरण अनुप्रेक्षा है ।
(३) मैंने पहले अनादिकालसे मनुष्य. देव, नारकी और तिर्यंच बनकर दुःख सहे हैं और इस संसारमें भ्रमण करता फिरा है इसको संसारअनुप्रेक्षा कहते हैं
(४) मैं इस संसारमं अकेला हूं। इसका नाम एकत्वअनुप्रेक्षा है ॥ (५) संसारकी यह सब वस्तु मुझसे न्यारी हैं। इसका नाम अन्यत्वअनुपेक्षा है। (६) मैं इस मलसे भरेहुये शरीर पर क्या मान करूं । इसका नाम अशुचिअनुप्रेक्षा है।
(७) मुझको विजोग अर्थात् मन, वचन और कर्मका चितवन करना चाहिये जिनसे नये काँका बंध होता है । इसको आखवअनुपंक्षा कहते हैं ।
(८) मुझको ऐसा उपाय करना उचित है जिससे आगामी कालमें मेरी आत्मासे नये काँका बंध होना रुक जाय । इसको संवरअनुप्रेक्षा कहते हैं ।
(९) मुझको ऐसे उपाय करने चाहिये जो मुझको पिछले कमौके नाश करनेमें सहायक हो । इसको निर्जराअनुप्रेक्षा कहते हैं।
(१०) मुझको इस लोकका चितवन करना चाहिये, इसमें क्या २ विद्यमान हैं, द्रव्य कौन २ से हैं, तत्त्व कौनसे हैं इत्यादि । इसका नाम लोकअनुप्रेक्षा है ।।