________________
जैनधर्मपर व्याख्यान.
यदि ऐलक श्रावक होतो जंगलमें साधुओंके संग रहता है । और वहां तपश्चरण करता है और लंगोटी लगाये हुये साधुभोंकी तरहसे निदोष आहार ग्रहण करता है.
यदि वह क्षुल्लक श्रावक हो तो केवल लंगोटी चादर, और कमंडलु रखता है और मठ मंडप वा मन्दिरमें वास करता है। भिक्षाकर आहार लेता है जो इसके निमित्त ही कोई भाहार बनाता है तो उसको नहीं लेता और अयोग्य और सचित्त माहारको नहीं लेता. इस प्रतिमाका नाम उद्दिष्टवत प्रतिमा है.
उपर कहे हुये श्रावकके चरित्रके ११ भागोंके सिवाय हरएक गृहस्थी जैनको यथा. दशलाक्षणी धर्म
" शक्ति दशलाक्षणी धर्मके धाग्नेको भी आज्ञा है। (१) उसको क्रोध जीतना चाहिये अपनसे छोटेसे भी सब प्रकारकी अवज्ञा और हानि शांतिसे सहन करनी चाहिये और उनपर क्षमा करनी चाहिये.
इसका नाम उत्तमक्षमाधर्म है। (२) उसको मानकी बात नाह कहनी चाहिये अर्थात् गर्व नहिं करना चाहिये । इसका नाम मार्दवधर्म है। (३) उसको छल और कपटसे अलग रहना चाहिये । इसको आर्जवधर्म कहते हैं। (४) उसको सत्य बोलना चाहिये । इसका नाम सत्यधर्म है।
(५) उसको आत्मा शुद्ध रखनी चाहिये और लोभरूप परिणाम नहीं करने चाहिये जिससे वह भ्रष्ट हो । उसको स्नान करके अपने शरीरको निर्मल और पवित्र भी रखना चाहिये।
इसको शौचधर्म कहते हैं।
(६) उसको छह प्रकारके जोवोंकी रक्षा करनी चाहिये और मन तथा पांचो इन्द्रियां वशमें रखनी चाहिये।
इसको संयमधर्म कहते हैं। (७) उसको बारह प्रकारका तप करना चाहिये । इसका नाम तपधर्म है।
१ पृथिवीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकान, वनस्पतिकाय, और त्रसकाय।
२ अनशन, ऊनोदर, तपारसल्यान, रखपरिस्थाग, विवक शय्यासन, कायझेश, प्रायश्चित, विनय । वैयावत, खाध्याय, म्युत्सर्ग, ध्यान ।