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________________ . ४३७ immmmmmm दशम अध्याय mamaminn जात्यन्धाय च दुर्मुखाय च, जराजीर्णाखिलांगाय च ... ग्रामीणायः च दुष्कुलाय च, गलत्कुष्ठाभिभूताय च। यच्छन्तीषु मनोहरं निजवपु - लक्ष्मीलवश्रद्धया, पण्यस्त्रीषु विवेककल्प-लतिका-शस्त्रीषु रज्येत का ? *" अर्थात्- कुरूप, वृद्ध, गंवार-मूर्ख, नीच और कुष्ठ रोगी को भी ज़रा-से धन की आशा से जो अपना सुन्दर शरीर सौंप देती है और . जो विवेक रूपी कल्पलता के लिए छुरी के समान है, उस वेश्या से। कौन विवेकशील व्यक्ति रमण करना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं। ' इस तरह वेश्या का प्यार व्यक्ति से नहीं पैसे से होता है । पैसा देकर कोई भी व्यक्ति उसके नग्न शरीर के साथ खिलवड़ कर सकता है। अस्तु, एकाधिक व्यक्तियों के साथ और मर्यादा से अधिक भोग । भोगने के कारण उसके शरीर में अनेकों रोग घर कर जाते हैं। चीन प्रादि देशों में जहां कि अव वेश्यावृत्ति का उन्मूलन हो चुका है- जव वेश्याओं के शरीर की जांच कराई गई तो ७५ प्रतिशत वेश्याएं यौन. संबंधी भयंकर रोगों से पीड़ित मिलीं और २० प्रतिशत साधारण रोगों से पीड़ित थीं। और ये रोग स्पर्श से फैलने वाले होते हैं। अतः जो व्यक्ति उसके साथ संभोग करता है, उसे वही रोग लग जाता है । इस तरह वेश्यागमन मनुष्य को रोगी भी बना देता है । इसमें पैसे को हानि होती है, शक्ति का ह्रास होता है और स्वास्थ्य का नाश होता. है. लोगों में निन्दा होती है । वेश्यालय के द्वार खटखटाने वाला व्यक्ति सब तरह से घाटे में रहता है, वह सर्वस्व लुटा कर ही लौटता है। भारतीय संस्कृति के एक विचारक ने कहा है- वेश्या, देखने मात्र में ... * शृंगारशतक [भर्तृहरि] श्लोक ८९
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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