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________________ अठारहवां अध्याय ९४२ T .: लम्बी चौड़ी गोलाकार सिद्ध-शिला है । वह मध्य में आठ योजन मोटी और चारों तर्फ क्रम से घटती घटती किनारे पर मक्खी के पंख. से भी अधिक पतली हो जाती है । इस सिद्धशिला के एक योजन ऊपर अग्रभाग में ४५ लाख योजन लम्बे-चौड़े और ३३३ धनुप और ३२ अंगुल जितने ऊंचे क्षेत्र में अनन्त सिद्ध भगवान विराजमान हैं । यहीं लोक का अन्त हो जाता है। लोक के चारों ओर श्रनन्त चौर सीम लोकाकाश में ग्राकाश द्रव्य के अलावा और कोई द्रव्य नहीं 'होता । खाली आकाश ही आकाश है । इस प्रकार सारा विश्व तीन भागों में विभक्त है । सब से नीचे नरक हैं और सबसे ऊपर सिद्धशिला है । जैनदर्शन ने भूमण्डल, श्राकाशमण्डल का जो स्वरूप बतलाया है, उसका यह संक्षिप्त सा वर्णन है । 1 प्रश्न - - - जैनदर्शन द्वारा मान्य भूगोल और खगोल का आधुनिक सिद्धान्त और खसिद्धान्त का मेल नहीं खाता, - इस का क्या कारण है. उत्तर- भूमण्डल और आकाशमण्डल के सम्बन्ध में जैनदर्शन ने जो तथ्य साहित्य जगत के सामने ऊपर स्थित किए हैं, वे सर्वथा सत्य हैं, उन्हें किसी भी तरह झुठलाया नहीं जा सकता है । भूगोल के विषय में यद्यपि आधुनिक प्रचलित भूगोल और भूभ्रमण के सिद्धान्त जैनदर्शन के भूसम्बन्धी सिद्धान्तों से विरोध रखते हैं किन्तु यह विरोध. चिरस्थायी नहीं है, सदा ठहरने वाला प्रतीत नहीं होता । वह घड़ी बहुत शीघ्र आने वाली प्रतीत होती है जव जैनदर्शन का भूसम्बन्धी और खसम्बन्धी सिद्धान्त सर्वमान्य होगा तथा आधुनिक भूवेत्तात्रों के सिद्धान्त उलट-पुलट हो जाएँगे । इसका कारण इतना ही है कि - भूगोल के विषय में यूरोपीय विद्वानों के सिद्धान्त अभी स्थिर नहीं हो ;
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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