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________________ अठारहवां अध्याय .९२२ ६- कांगनी - रत्न - यह छहों और चार-चार अंगुल लम्बा, चौड़ा, सुनार की ऐरन के समान, छः तले, ग्राठ कोने, वारह हंसे वाला तथा ग्राठ सोनैया भर वजन का होता है। इससे वैताढ्यपर्वत की गुफाओं में एक-एक योजन के अन्तर पर पांच सौ धनुष के गोलाकार ४८ मण्डल किए जाते हैं, इनका प्रकाश चन्द्रमा के समान होता है । श्रीर यह जब तक चक्रवर्ती जीवित रहता है, तब तक बना रहता है । ७- चर्म रत्न - यह दो हाथ लम्बा होता है। यह वारह योजन लम्बी और ९ योजन चौड़ी नौका रूप वन जाता । चक्रवर्ती. की सेना इस पर सवार हो कर गंगा और सिंधु जैसी महानदियों को पार करती है। उक्त तीनों रत्न चक्रवर्ती के लक्ष्मी भण्डार में पैदा होते हैं । .t ८- सेनापतिरत्न वोच के दोनों खण्डों को चक्रवर्ती स्वयं जीतता है और चारों कोनों के चारों खण्डों को चक्रवर्ती का सेनापति जीतता है । यह वैताद्यपर्वत की गुफाओंों के द्वार दण्ड का प्रहार करके खोलता है और म्लेच्छों को पराजित करता है । ९- गाथा पतिरत्न - चर्म रत्न को पृथ्वी के ग्राकार का बना कर उस पर २४ प्रकार का धान्य और सब प्रकार के मेवे, शांक, सब्जी आदि सभी पदार्थ दिन के प्रथम प्रहार में बोए जाते हैं, दूसरे पहर में सब पक जाते हैं, तीसरे पहर में उन्हें तैयार करके चक्रवर्ती आदि को खिला देता है । यह सत्र कार्य करने वाले को ही गाथापतिरत्न कहते हैं । १० - वर्धकि रत्न - यह मुहूर्त्त भर में १२ योजन लम्बा, ९ योजन चौड़ा और ४२ खण्ड का महल, पोषधशाला, रथंशाला, घुड़शाला, पाकशाला, बाजार आदि सब सामग्री से युक्त नगर बना देता है । रास्ते में चक्रवर्ती अपने समस्त परिवार के साथ उस में निवास करते हैं ।
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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