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________________ ग्रठाहरवां अध्याय ९०६ का शिखर उपलब्ध कर सकता है, वैसे ही नरक गति का जीव मनुष्यलोक को प्राप्त हो कर ग्राव्यात्मिक 2 भी वहाँ से निकल कर साधना द्वारा जीवन का कल्याण कर सकता है | भवनपति देव प्रथम नरक में १३ पाथड़े और १२ अन्तर है । कयन्तर श्रसंख्य योजन के लम्बे चीड़े होते हैं और ११५८३ योजन के ऊँचे । इन बारह अन्तरों में से एक सबसे ऊपर का ओर एक सबसे नीचे का खाली पड़ा है, बीच में दस अन्तर हैं । उनमें अलग-अलग जाति के भवनपति देव रहते हैं । दस में से पहले अन्तर में असुरकुमार जाति के भवनपति देव रहते हैं । दूसरे ग्रन्तर में नागकुमार जाति के भवनपति देव, तीसरे में सुवर्णकुमार जाति के, चौथे में विद्युत्कुमार जाति के, पांचवें में अग्निकुमार जाति के, छठे में द्वीपकुमार जाति के, सातवें में उदधिकुमार जाति के, आठवें में दिशाकुमार जाति के, नौवें में वायुकुमार जाति के और दसवें में स्तनितकुमार जाति के भवनपति देव निवास करते हैं। सभी भवनपति देव कुमार इसलिए कहे जाते हैं, वे कुमार . जैसे मकान में मंज़िलें होती हैं, वैसे ही नरक में भी मंज़िलें होती हैं । नरक की मंज़िल को अन्तर कहते हैं । जैसे मंज़िलों के बीच में छत - पृथ्वीपिण्ड रहतो है, वैसे ही अन्तरों के बीच के पृथ्वी-पिण्ड को पायड़ा कहा जाता है । पाथड़ों के मध्य में पर्वतीय गुफाओं के समान पोलार (शून्य प्रदेश) होता है, उसी में नरकावा होते हैं । इन नरकावासों में नारकीय जीव निवास करते हैं । पाथड़े और अन्तर नरकों में होते हैं | सातवें नरक में 2 पाथड़ा और छठे में 3 पाथड़े, २ अन्तर पांचवें में ५ पाथड़ े, ४ अन्तर, चौथे नरक में ७ पार्थ े, ६ श्रन्तर । तीसरे नरक में पाथड़े, अन्तर, दूसरे में ११ पायड़ े, १० श्रन्तर और प्रथम नरक में १३ पाय और १२ अन्तर होते हैं ।
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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