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________________ पन्द्रहवां अध्याय ८२१: के प्रक्षय रहने का, सुरक्षित होने का कारण वनी । दूसरी बात, राजकुमार श्रेयांस के इक्षुरस के दान से अन्य : लोगों को दान के विधिविधान का बोध हुआ, जो ग्रन्थ साधु-मुनिराजों के संयमशरीर को अक्षय ( सुरक्षित) रखने में पूर्ण सहायक प्रमाणित हुआ। तीसरी वात, मानव जगत वर्षीतप की प्राराधना करके इस दिन अक्षय हुआ, उसे अक्षयस्थिति (मोक्ष) प्राप्त करने का मार्ग.. मिला । इन्हीं कारणों से वैशाख शुक्ला तृतीया को दानतृतीया न कह कर अक्षयतृतीया कहा गया है। अक्षय तृतीया भगवान ऋषभदेव के पारणे का महोत्सव है । इस महोत्सव के माध्यम से उस प्रकाशपुंज के ग्रात्म प्रकाश से अपने आत्ममन्दिर को प्रकाशित किया जाता है और इस दान से माधुर्यदान देने की प्रेरणा प्राप्त की जाती है । इक्षुरस तो जव तक मुंह में रहता है, तभी तक मिठास देता है और क्षणिक शक्ति प्रदान करता है, किन्तु माधुर्य का दान जहां जीवन में ग्रात्मिक शक्ति पैदा करता है, बाहिरी जीवन को अनेक कटुप्रसंगों से बचा लेता है, वहां जीवन की रूक्षता को स्निग्धता में परिवर्तित कर देता है । शक्कर के टीन खा कर भी यदि मनुष्य का जीवन मीठा नहीं बना, इस का कारण केवल मानव की कटुता विषमता और माधुर्य की न्यूनता . है । ग्रक्षयतृतीया के महोत्सव से इसी की प्राप्ति की प्रेरणा प्राप्त की जाती है ।.. • क्षयतृतीया को इक्षुरस का दान दिया जाता है, और वर्षीतप का पारणा किया जाता है | आज लगातार एक वर्ष तक उपवास करने का शारीरिक बल तो है नहीं, इस लिए एक उपवास के अनन्तर पारणा, पुनः उपवास करना, इस तरह निरन्तर वर्ष भर तप किया जाता है । इस तप को वर्षीतप की संज्ञा दी जाती है । वैशाख शुक्ला द्वितीया को वर्षीतप का अन्तिम उपवास होता है, और
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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