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. चतुर्दश अध्याय .. . ७८७ पुण्य की उत्पत्ति तेरहपन्थ को मान्य नहीं है। इसी मान्यता के आधार पर तेरहपन्थी लोग साधु के सिवाय और किसी को दिएँ । गए दान में पुण्यं नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि जहां निर्जरा नहीं . वहां पुण्य नहीं और साधु के सिवाय जो दान दिया जाता है उस से. निर्जरा नहीं होती है, इसलिए वहां पुण्य. भी नहीं होता.। किन्तु . . स्थानकवासी परम्परा इस बात में विश्वास नहीं रखती। इसका . कहना है कि जिस तरह घास खेत में अनाज के साथ अपने आप ही उत्पन्न हो जाता है और कभी अनाज के न होने पर भी उत्पन्न हो ... जाता है तथा केवल कभी घास ही उत्पन्न किया जाता है। उसी तरह पुण्य कभी निर्जरा के साथ उत्पन्न होता है, कभी निर्जरा : के विना भी उत्पन्न होता है और कभी केवल पुण्य ही उत्पन्न किया । जाता है। जिस प्रकार आवश्यकतानुसार घास भी उपादेय माना जाता है, उसी प्रकार आवश्यकतानुसार पुण्य भी उपादेय है । आवश्यकता पूर्ति होने पर जैसे घास त्याज्य होता है वैसे पुण्य भी कार्य-समाप्ति पर हेय बन जाता है। .
तेरहपन्थ का यह सिद्धान्त कि जहां निर्जरा नहीं, वहां पुण्य ... की उत्पत्ति नहीं होती और साधु के सिवाय जो दान दिया जाता... . है उस से निर्जरा नहीं होती, अतः दीन, दुःखी को दिया गया दान .
पुण्य का उत्पादक नहीं होता, सर्वथा शास्त्र-विरुद्ध है। श्री दशवकालिक सूत्र के पांचवें अध्ययन में लिखा है कि पुण्य के लिए
xअसणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। , जं जाणेज्जा सुगज्जा वा, पुणट्ठा पंगडें इमं ॥ तं भवे भत्तपागं तु, संजयाण अकप्पियं । दिन्तियं पडियाइक्खे, न मे कप्पई तारिसं ।।
........ दश ५,उ०/४९-५०