SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्दश अध्याय ६६५ तान्त आवश्यकता होती है । द्रव्यशुद्धि का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह भाव शुद्धि में सहायता प्रदान करती है। इसलिए जैनागमों ने साधुयों के लिए स्थान-स्थान पर एकान्त और शान्त स्थान में रहने का तथा काम-विवर्द्धक स्थान के परित्याग करने का 'बल - पूर्वक आदेश दिया गया है। वह स्थान जहां संयम को वाधा पहुंचती हो, ग्रन्तर्जगत के दूषित और अस्वस्थ होने की सम्भावना रहती हो उस को त्याग देने की प्राज्ञा प्रदान की है । इस प्रकार जहां द्रव्य शुद्धि के लिए जैनागमों ने जोर दिया है। वहां इस से अधिक भाव-शुद्धि पर बल दिया है । भाव-शुद्धि का सर्वोपरि स्थान है । भाव शुद्धि के विना द्रव्य शुद्धि का कोई महत्त्व नहीं रहता । वस्तुतः भावशुद्धि से ही द्रव्य शुद्धि में जीवन ग्राता है । अन्यथा वह मृत कलेवर की भांति निस्सार और निष्प्राण वन जाती है । द्रव्य शुद्धि केवल जीवन के वाह्य वातावरण को शुद्ध करती है किन्तु ग्रात्मसमाधि और संयम की निर्मलता की प्राप्ति के लिए भावशुद्धि अपेक्षित होती है । इसलिए मोक्षाभिलाषी साधक को द्रव्य शुद्धि से ग्रागे बढ़ कर भावशुद्धि को अपनाने की आवश्यकता होती है । भाव शुद्धि का ही दूसरा नाम भावस्थानक है | भावस्थानक ग्रात्मा की संयम - पूर्ण शुद्ध अवस्था का ही नामान्तर है । जैनागमों ने भाव ५ बतलाए हैं- १ - प्रपशमिक, २- क्षायिक, ३- क्षायोपशमिक, ४ - प्रोदयिक, और ५ - पारिणामिक । जो उपशम से पैदा हो, उसे प्रोपशमिक भाव कहते हैं । उपशम एक प्रकार की ग्रात्मा की शुद्धि होती है । जो सत्तागत कर्म का उदय रुक जाने पर वैसे ही प्रकट होती है जैसे मल के नीचे बैठ जाने पर जल में स्वच्छता प्रकट होती है । क्षय से पैदा होने वाले भाव का नाम क्षायिक है । यह श्रात्मा की वह परमविशुद्धि है जो कर्म का सम्बन्ध सर्वथा Y
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy