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________________ द्वादश अध्यायः ५६५ . . . mom.immmmmmmmmmmmmm यह आवश्यक है कि दिन में देख कर और रात में परिमार्जन करते हुए. गति करें। यों तो जैन साधु रात में बाहर कभी कहीं जाते नहीं । शारीरिक अावश्यकताओं से निवृत्त होने के लिए दिन में अच्छी तरह देखे हुए स्थान में ही जाते-आते हैं, और उस भूभागः । में गमन करते समय परिमार्जन करते हुए. चलना आवश्यक है। . रजोहरण साधु की तरहं गृहस्थ भी रख सकता है। परन्तु उसमें अन्तर इतना ही है कि साधु के लिए रजोहरण के डंडे पर वस्त्र लपेटने का विधान है-जिसे निसीथिंया कहते हैं परन्तु गृहस्थ रजोहरण के डंडे पर वस्त्र नहीं लपेट सकता । दूसरा अन्तर यह है कि साधु रजोहरण को सदा-सर्वदा अपने पास . रखता है, किन्तु गृहस्थ सामायिक-प्रतिक्रमण या पौषधादि धार्मिक क्रिया करते समय ही अपने पास रखता है। रजोहरण के साथ गृहस्थ एक रजोहरणी भी रखता है। श्राविकाएं-बहनें भी रजोहरणी रखती हैं, उनकी रजोहरणी में भी साध्वियों की तरह डंडी नहीं होती। . ___ साधु-साध्वी के लिए सदा और श्रावक-श्राविका के लिए धार्मिक क्रिया करते समय रजोहरण और रजोहरणी रखना ज़रूरी है । रजोहरण का उपयोग चलते समय मार्ग में आने वाले जीवों की रक्षा के लिए है । रजोहरणी को रजोहरण की तरह सदा साथ रखने की आवश्यकता नहीं है । उसका उपयोग आसनादि का परिमार्जन करने तथा शरीर को खुजलाने के पूर्व परिमार्जन करने . . के लिए है । अतः उसका उपयोग स्थान पर रहते समय किया जाता है। . इस तरह हम देख चुके हैं कि साधना जीवन का प्रकाशमान
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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