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________________ द्वादश अध्याय ५७६ उठने-बैठने, चलने-सोने प्रादि रूप से की जाने वाली प्रत्येक क्रिया में सावधानी रखनी होती है। इसी तरह भाषा वर्गरणा के पुद्गलों का प्रयोग करते समय भी विवेक रखना ज़रूरी है। नहीं तो, बोली जाने वाली भाषा से अनेक प्राणियों के प्राणों का नाश हो जाएगा | जैनागमों के अनुसार लोक के सभी प्रदेशों पर जीव स्थित हैं । हम जिस स्थान में रहते हैं या घूमते-फिरते हैं, वहां के आकाश - मंडल में एक, दो नहीं, असंख्य जोव भरे पड़े हैं । वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि येकसस नाम के असंख्य जन्तु वायु-मंडल में पाए जाते हैं । ये प्रारंगी इतने छोटे होते हैं कि सूई के अग्र भाग पर एक लाख जीव समा सकते हैं । इस तरह वैज्ञानिक भी लोक में जीवों के अस्तित्व को मानते हैं । अस्तु, जैन धर्म एक काल्पनिक विचारों पर गतिशील धर्म नहीं है, प्रत्युत वैज्ञानिक धर्म है । जैन ग्रागमों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है किं वायु स्वयं सजीव है । अतः यह सीधी-सी समझ में आने वाली वात है कि जब हम बोलते हैं तो उस समय मुख में से निकलने वाली गर्म वाष्प या वैज्ञानिक भाषा में कहें तो कार्बोलिक एडिस गैस युक्त वायु से वायु-मंडल में स्थित जीवों की हिंसा होती है । र थोड़ी-सी सावधानी एवं विवेक रख कर हम असंख्य जीवों की हिंसा से बच भी सकते हैं या यों कहिए कि उनके प्राणों को बचा सकते हैं । ग्रतः ज़रा-सा प्रमाद या सांप्रदायिक ग्राग्रह असंख्य प्राणियों के वध का कारण वन जाता है और ज़रा-सा विवेक लाखों-करोड़ों प्राणियों के जीवन-रक्षरण का कारण वन सकता है । मुख्य - वस्त्रिका का उपयोग जीवों की सुरक्षा के लिए है । क्योंकि मुख से निकलने वाली वायु गर्म और विषाक्त गैस युक्त होती है और वह पूरे वेग से निकलती है, इसलिए उसके द्वारा
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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