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________________ - द्वादश अध्याय ५७१ ~~~~~~~~ ~~~~invi tउत्थान की ओर अभिमुख होता है । अतः जैन साधु की भिक्षावृत्ति किसी के लिए वोझ रूप नहीं है । यह हम पहले ही बता चुके हैं कि वह न तो एक ही घर से पात्र भरता है, न किसी का निमंत्रण ही स्वीकार करता है और न अपने लिए वनाई या खरीदी हुई वस्तु काम में लेता है । वह सद्गृहस्थ के घरों में जाता है और उनके घरों में अपने लिए बनाए गए पदार्थो में से अपनी विधि-मर्यादा के अनुसार थोड़ा-थोड़ा शुद्ध एवं सात्त्विक आहार ग्रहण करता है । अतः साधु का जीवन सोधा-सादा एवं जगत के हित के लिए होता है और उस की भिक्षावृत्ति भी सर्वक्षेमंकरी है। __जैन साधु हरी सब्जी का भी स्पर्श नहीं करते हैं। क्योंकि वनस्पति सजीव होती है । अतः अपक्व सब्जी को वे ग्रहण नहीं करते। इसी तरह कुएं,तालाब एवं नदी आदि के पानी को भी पीने, वस्त्रादि धोने के काम में नहीं लाते, यहाँ तक कि उस का स्पर्श भी नहीं करते । यदि वर्षा बरस रही हो तो वे वरसते पानी में आहार-पानी लेने भी नहीं जा सकते । वनस्पति को तरह पानी भी सजीव माना गया है। वैज्ञानिकों ने भी इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि पानी के एक बिन्दु में अनेकों जीव देखे जा सकते हैं । ये लाखों जीव हलन-चलन करने वाले द्वीन्द्रियादि प्राणी हैं, परन्तु आगम के अनुसार पानी का शरीर स्वयं सजीव है । अतः उसको रक्षा के लिए साधु कच्चे पानी का. स्पर्श नहीं करते । वे गृहस्थ के घर मे उसके अपने काम के लिए बने हुए गर्म-उष्ण पानी या बर्तनों का धोया हुआ पानी लेते हैं। कुछ विचारकों का कहना है कि वर्तनों का धोया हुआ पानी झूठा होता है, इसलिए उसे नहीं लेना चाहिए । मूत्ति-पूजक संप्रदाय के साधु धोवन पानी का सर्वथा निपेध करते हैं । परन्तु यह उचित नहीं कहा जा सकता। क्योंकि
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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