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________________ - ५४६ प्रश्नों के उत्तर ॐ " सम्मान से ही होती है। जहां भी साधु जाता है, वहीं अभिवन्दनों प्रोर अभिनन्दनों के पुलिन्दे उसके चरणों में प्रपित किए जाते हैं । प्रमोरगरीब, राजा-रंक सभी के मस्तक उसकी चरण-रज प्राप्त करते हैं । स्थान-स्थान पर उसे प्रातिथ्य मिलता है । उसके जय नांदों से कई बार तो आकाश भी गूंज उठता है । इस प्रकार सर्वत्र साधु को सम्मान ही सम्मान प्राप्त होता है । किन्तु जब जीवन में अपमान की घडियां आती हैं तो कई बार उसे अपमान का सामना भी करना १६ "" 1 पड़ता है । लोग उसे घृणा से देखने हैं, उस पर दुतकार और तिरस्कार की वर्षा करते हैं। भोजन तो किसने देना है, प्रेम पूर्वक उस से कोई बोलने भी नहीं पाता । प्यास के मारे कण्ठ सूख रहा है तथापि पानों की दो घूंटें उपलब्ध नहीं होतीं. भोजन को देखे तोन-तीन दिन गुज़र जाते हैं। वृक्षों के नोचे रातें व्यतीत करनी होती हैं रोगों ने शरोर का कचूमर निकाल दिया है। इस प्रकार असातावेदनीय कर्म के अनेकों प्रकोप उसे जीवन में दृष्टिगोचर होते हैं । ." जैन दर्शन कहता है कि साधु जीवन में मान की प्राप्ति हो या अपमान की पर दोनों अवस्थानों में साधु को शान्त और दान्त रहना चाहिए । हर्ष शोक के प्याले उसे बिना झिझक के पो जाने चाहिए । समता भगवती की आराधना हो उसके जीवन को साधना होनी चाहिए | परन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि इस बात का पता कैसे चले कि साधु मानापमान में शान्त रहता है या नहीं और समता के महापथ पर दृढ़ता से बढ़ रहा है या नहीं ? इसी बात की जांच करने के लिए जैनाचार्यों ने वर्ष में एक परीक्षा नियत को है और वह परीक्षा है— केशलोच । केशलोच से साधु की मानसिक स्थिति का पूरा पूरा बोध प्राप्त हो जाता है । सम्मान पा कर क्या वह सुख-प्रिय बन गया है ? दुःख प्राने पर उसका स्वागत कर सकता है या नहीं ? दुःख में
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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