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________________ : - द्वादश अध्याय mmmmmm :परन्तु जैन विचारकों ने कहा कि न एकांत ज्ञान मुक्ति मार्ग है - और न एकांत क्रिया-कांड ही। "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः” ज्ञान और ... क्रिया के समन्वय से मुक्ति प्राप्त होती है । प्राचार्य उमास्वाति ने भी .. यही बात कही कि सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुक्ति का मार्ग है। सम्यग् दर्शन और ज्ञान तो हो, परन्तु चारित्र का अभाव हो तो साध्य की सिद्धि नहीं होती। इसी तरह मांत्र चारित्र से भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। चारित्र के अभाव में दर्शन और ज्ञान सम्यक् रह सकते हैं, पर उनसे आत्मा सिद्धत्व को नहीं पा सकती, सम्यग दर्शन और ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक नहीं रह सकता, वह मिथ्या चारित्र हो जाता है और आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराता । रहता है। प्रस्तु, मात्र जानने यो क्रिया करने से मुक्ति नहीं मिलती। जैसे एक व्यक्ति को आयुर्वेद का परिपूर्ण ज्ञान हैं, समस्त रोगों को दवाएं उसे जवानी याद हैं। वह व्यक्ति बीमारी के समय उस रोग को . दूर करने वाली औषधों का स्वाध्याय एवः चिन्तन-मनन करता रहता है, परन्तु उस औषध को ग्रहण नहीं करता और दूसरा व्यक्ति एक के बाद दूसरी, तीसरी औषध पर औषधः खाता जा रहा है, परन्तु उसे यह पता ही नहीं है कि किस रोग पर कौन सी औषध लेनी चाहिए। ऐसे दोनों व्यक्ति रोग से मुक्त नहीं हो सकते। यह नितान्त सत्य है. कि ज्ञान से मार्ग दखाई देता है, परन्तु तय नहीं हाता, और क्रिया से . . मार्ग तय होता है। परन्तु दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए महान् तत्त्व-: . वेत्ताओं ने दोनों के समन्वय की बात कही है. दोनों मिल कर ही 'मार्ग को तय कर सकते हैं। ज्ञान प्रांख है तो क्रिया पैर है और रास्ते. .... को तय करने के लिए दोनों के समन्वित सहयोग की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः . ~ तत्वार्थ सूत्र १, १ ..
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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