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________________ ५२७ एकादश अध्याय vwwww wwwww--- - - - को बल नहीं मिल सकता। प्रतः द्रव्य सामायिक भी सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है। जीवन विकास के लिए उसकी भी उपयोगिता है। फलतः द्रव्य और भाव सामायिक शुद्ध बनाने के लिए बाह्य और ग्राभ्यान्तर दोषों से बचने एवं द्रव्य, क्षेत्र प्रादि की शुद्धि रखने की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। . . . . . ... ... ... .... क माधना साधु एवं श्रावक दोनों करते हैं। फिर दोनों की साधना या सामायिक में क्या अन्तर है ? उत्तर- साधु हिंसा आदि दोषों का पूर्णतः त्याग करता है और वह भो एक-दो दिन, एक-दो माह या एक दो वर्ष के लिए नहीं, बल्कि जीवन पर्यंत के लिए हिंसांदि दोषों का सेवन न करने की प्रतिज्ञा करता है । परन्तु गृहस्थ उक्त दोषों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, वह एक अंश से ही त्यांग करता है । अतः उसका आचरण को पूर्णतः निर्दोष नहीं होता। और सामायिक का साधना का अर्थ है दोषों से, पापों से, सावध वृत्ति से अलग हट कर समभाव की साधना करना । साधु पूर्ण त्यागी होने के कारण उसकी सामायिक भी पूर्ण होती है और वह सदा के लिए होती है। आर श्रावक का जोवन पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व से आबद्ध होने के कारण उसे कुछ दोषों का सेवन करना होता है । अतः उसकी सामायिक साधना पूरे दिन या पूरे जीवन तक नहीं चल सकती। वह एक मुहुर्त तक समस्त दोषों से अपने मन, वचन और शरीर के योग का हटा कर जीवन में चल रही विषमताओं को दूर करके समभाव में प्रगति करने को साधना का अभ्यास करता है । प्रस्तु, साधु एवं श्रावक की सामायिक . साधना में इतना ही अन्तर है. कि साधु सामायिक जीवन पर्यंत के लिए होती है और श्रावक की सामायिक ४८ मिण्ट के लिए.। साधु
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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