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________________ ४७९ एकादश अध्याय प्राण कहा है जैसे मानव को दूसरे प्राणों के जाने पर जितना दुःख एवं .. वेदना होती है, उतना ही दुःख एवं वेदना धन के जाने पर होती है। कई बार धन अपहरण के समय मनुष्य को इतना भारी आघात लगता है कि उसके प्राण पखेरू तक उड़ जाते हैं। अतः किसी के धन को चराने या छीनने का अर्थ है- उसके प्राणों का अपहरण करना। अस्तु,सुख-शांति पूर्वक स्वयं जीने एवं दूसरे को जीवित रहने देने वाले को इस क्रूर एवं नीचंतम कर्म से सदा दूर रहना चाहिए। .. अस्तेय व्रत की साधना करने वाले व्यक्ति को पांच बातों से सदा बच कर रहना चाहिए। निम्न पांचों दोष जानने योग्य है, परन्तु . आचरण करने योग्य नहीं है । श्रावक को इन दोषों से सर्वथा दूर रहना चाहिए । वे दोष इस प्रकार हैं १-किसी भी चोर को प्रेरित करना या दूसरे व्यक्ति से प्रेरणा दिलवाना दोष है । जैसे चोरी करना अपराध है, उसी तरह चोर को .. चोरी करने के लिए मदद एवं प्रोत्साहन देना भी अपराध है। जैसे यदि उसके पास खाद्य सामग्री की कमी है, उस समय उसे खाद्य पदार्थ दे देना । इसी तरह उसके पास ताला तोड़ने, सेंध लगाने आदि के औज़ार नहीं तो उसकी व्यवस्था कर देना तथा उसका माल कोई खरीदने वाला नहीं है तो स्वयं उसका माल खरीद लेना तथा उसे छिपने के लिए स्थान दे देना एवं इसी तरह और भी आवश्यक साधनों की व्यवस्था कर देना,यह कर्म मनुष्य को नैतिक एवं प्रामाणिक. जीवन से नीचे गिराने वाला है। चोर को चोरी करने के लिए सहयोग देना चोरी करने जितना ही गुरुतर अपराध है। अतः श्रावक को अपने अस्तेय व्रत को शुद्ध एवं निर्दोष रखने के लिए, उक्त पाप या दोष से सर्वथा बचे रहना चाहिए।
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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