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________________ ४७१............... एकादश अध्याय ...... सत्य अ त्रत .......... ... सत्य का अर्थ है- यथार्थ भाषण करना। केवल यथार्थ बोलना ही नहीं, अपितु यथार्थ सोचना- समझना और यथार्थ काम करना भी सत्य है। वस्तु के.यपार्थ-वास्तविक स्वरूप को सोचना विचारना जानना और प्रकट करने का नाम ही सत्य है। योगों की यथार्थ प्रवत्ति में या यों कहिए कि मन, वचन और शरीर योग से वस्तु के यथार्थ चिन्तन एवं प्रकटीकरण में सत्य है । यथार्थता के अतिरिक्त सत्य कुछ नहीं है। यही कारण है कि भगवान महावीर ने 'सत्य को भगवान कहा है- "सच्चं खु भगवं" अर्थात् सत्य ही भगवान है और 'सच्चं लोगम्मि सारभूयं" सत्य ही लोक में सारभूत है। .. . . गृहस्थ श्रावक जैसे पूर्णतः हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह वह सर्वथा असत्य का भी त्याग नहीं कर सकता। वह सूक्ष्म झूठ. जिसे हम केवल शास्त्रीय भाषा में झूठ कहते हैं और जो साधु के लिए भी त्याज्य है- का त्याग नहीं कर सकता। वह स्थूल . झूठ का त्याग करता है। ऐसे झूठ का जिसे लोग झूठ कहते हैं और जिसके कारण अपनी एवं दूसरे प्राणी की प्रात्मा को आघात लगता है, दूसरे प्राणियों का नुकसान होता है, ऐसा झूठ श्रावक के लिए सदा त्याज्य है। इस स्थूल झूठ को पांच विभागों में बांटा गया है--१. कन्या-संबंधी, २-भूमि संबंधी, ३-गो संबंधी, ४-न्यास संबंधी और ५-साक्षिसंबंधी । १-कन्या सम्बन्धी झूठ नहीं बोलना। मानव सृष्टि में कन्या का अधिक महत्त्व माना गया है। क्योंकि वह जननी है, मानव को संरक्षिका है। इसलिए यहां कन्या शब्द प्रधानता के कारणं रखा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि श्रावक कन्या के लिए तो झूठ नहीं बोले,परन्तु लड़के के लिए यदि झूठ बोले तो कोई दोष नहीं । कन्या
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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