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छट्ट सत ( नवमो उद्देसो)
अविसुद्धसादि देवाणं जाणणा-पासणा-पदं
१६८ १ विसुद्ध से ण भते ! देवे असमोहरण' अप्पाणेण श्रविसुद्धलेस देव देवि, अण्णयर' जाणइ-पासइ ? णो तिणट्टे समट्ठे' |
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एव–२ अविसुद्धलेसे देवे समोहरण अप्पाणेण विसुद्धलेस देव ३ अविसुद्धलेसे देवे समोहएण अप्पाणेण प्रविसुद्धलेस देवं ४ अविसुद्धले से देवे समोहरण ग्रप्पाणेण विसुद्धलेस देव ५ ग्रविसुद्ध लेसे देवे समोहयासमोहरण अप्पाण विसुद्ध स देव ६ अविसुद्ध लेसे देवे समोहयासमोहरण अप्पाणेण विसुद्धले सं देव ७ विसुद्धलेसे देवे समोहरण अप्पाणेण अविसुद्धलेस देव व विसुद्धलेसे देवे ग्रसमोहएण ग्रप्पाणेण विसुद्धलेस देव ।।
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६ विसुद्धले से ण भते ! देवे समोहरण अप्पाणेण अविसुद्धलेस देव जाणइपासइ ?
हता जाणइ पासइ ।
एव-१०. विसुद्धलेसे देवे समोहरण अप्पाणेण विसुद्ध लेस देवं ११. विसुद्धलेसे देवे समोहयासमोहएण अप्पाणेण अविसुद्धलेस देव १२. विसुद्धले से देवे समोहयासमोहएण अप्पाणेण विसुद्ध स देव || १७० सेव भते ! सेव भते । त्ति ॥
१ असमो० ( अ, ता, म, स ) । २. अणगार (क, व) | ३. समट्ठे एव हेट्ठिल्लएहि अट्ठहि न जाणइ न पासइ उवरिल्लएहिं चउहिं जारणइ-पासइ (क, ता, वृ), स्वीकृतपाठस्य वृत्तिकृता वाचनान्तरत्वेन उल्लेख. कृतोस्ति
वाचनान्तरे तु सर्वमेवेद साक्षाद्द्द्श्यते (वृ) । 'अ, व, म, स' सकेतितादर्शेषु द्वयोर्वाचनयोमिश्रण दृश्यते । तत्र द्वादशभगानन्तर 'एव हेलिए हिं' इत्यादि पाठोस्ति ।
४ भ० १५१ ।