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। श्रीमद् विजयानंदसूरि कृत,
श्रारी । नरम मिथ्या मत डर नस्योहे । जिन चरणे चित लाइ सखीरी ॥ चाह ॥१॥ सम संवेग निरवेद बस्योहें, करुपारस सुखदारी। जैन वैन अती नीके सगरे । ए नावना मननाश् सखीरी ॥ चाह ॥२॥ संका कंखा फल प्रतीसंसा। कुगुरु संग बटकारी । परसंसा धर्महीन पुरुषकी । इन नव मांही नकाई सखीरी ॥ चाह ॥३॥ पुग्ध सिंधुरस अमृत चाखी । स्याहाद सुखदारी । जहरपान अब कोन करतहे। पुरनय पंथ नसां३ सखीरी॥ चाह ॥४॥ जब लग पुरण तत्व न जाण्यो, . तबलग कुगुरु जुलाश्री । सप्तनंगी गीत तुमवानी। नव्य जी- . व मन नाश् सखीरी ॥ चाह ॥५॥ नामरसायण जग सहु नाखे । मरम न जाणे कांरी ॥ जीव वाणी रस कनक करणको ॥ मीथ्या लोक गमा सखीरी