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श्रीमद् विजयानंदसूरि कृत,
मन सुखदाय देखी सुन कारणी। ल । एही जिनमत रीत है। ल । मीत हो और सब ही विहाय । नव सिंधु तारणी ॥ल ॥६॥धन्य जनम तिस पुरुषका। लण् । धारी हो तुम आण अखंड । मन वच काय सुं। लगातम अनुजव रस पीया । ल । धीया हो तुम चरणमे मंड चित हुलसाय सुं। लम् ॥७॥
इति श्री संजव जिन स्तवनं ॥३॥ ।श्रीअनिनंदन जिनस्तवन ।
__होरी की चाल । परम आनंद सुख दीजोजी । अनिनंदन यारा। अखय अनेद अद सरूपी। झान नान उजवारा । चिदानंदघन अंतरजामी। धामी रामी ५ त्रिनवन सारा जी। ॥१॥ चार प्रकारनाबंध निवारी। अजर अमर पद धारा । करम नरम सब बोरदीये हैं । पामी सामी । परम