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________________ ६६ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत, अथ महावीर जीन स्तवन. राग वसंत. सिंध काफी. वीर प्रनु मन जायोरे मेरे नव दुःख टारे ॥ वीर ॥ श्रांचली ॥ देशना अमृत रस नरी नीकी, नवनव ताप मिटायो ॥ शोल पहोर लगदे जीनवरजी, करुणासिंधु सुहायोरे ॥ मे ॥१॥ पचपन सुन फल पचपन इतरे, यही अध्ययन सुनायो । बनीस विन प्रने प्रश्नोका, उत्तर कथन करायोरे ॥ मे ॥२॥ एक अध्ययनही नाम प्रधाने, कथन करत महारायो । महानंद पदजग गुरुपायो, जय जयकार करायोरे ॥ मे ॥३॥ कल्याणक निर्वाण महोडव, कार्त्तिकमां वास गयो । चल• सप सुरपति सोग कर्तहे, जरते तरणि बिपायोरे ॥ मे ॥४॥ गौतम देव शरम प्रतिबोधी, सुन मनमें गजरायो ॥ वर्धमान मुजे बोड जगतमें, एकोही मोद
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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