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चतुर्विंशति जिनस्तवन. करम कठण मुख देतके वेग निवारीये॥ वीतराग जगदीश नाथ त्रिजुवन तिलो। मदा गोप निर्याम धाम सब गुण निलो ॥१॥ कालसुनाव मिलान करम अति तीसरो । होन हार जिय शक्ति पंच मिली धीसरो ॥ एक अंस मिथ्यात वात ए सांजली । कीये मदरा पान आंख न धामली ॥२॥ पंचम काल विहाल नाथ हं आश्यो । मिथ्या मत बह जोर घोर अति बश्यो ॥ कलह कदाग्रह सोर कुंगुरु बहु गश्यो। जिन वाणी रस खाद के विरले पाश्यो ॥तुक किरपा न नाथ एक मुफ नावना । जिन आज्ञा परमाण
और नहीं गावना ॥ पक्षपात नही लेस केष किन सूं करूं । एही खनाव जिनंद सदा मन में धरूं ॥४॥ किंचित पुन्य प्रजाव प्रगट मुक देखीये । जिन आणायुत नक्ति सदा मन लेखीये ॥ होन हार सुन पाय मिथ्या मत गंमीये ॥सार