________________
-
~
स्तवनावली.
१५५ हुँ सीर नामी करुणा दृग्मोये करना । ज्यु वेग हुवे तरनाजी ॥१॥ धन दोलतमाल खजाना । नहीं मांगु त्रिभुवन राना मन नमरेकुंए आशा । तुज पद पंकजमे वासा । श्री ॥२॥ए सुषम कालकुःख दाई । तुज मुरती है सुख दा॥ नहीं कुमतिके मन नाई । हुवे मुरगत के सहाई ॥ श्री ॥३॥ कुपंथ जिनोने धारे। उरगतिमे गये विचारे। जिने तुम आज्ञा नहीं कीनी । तिने पाप पोटसीरतीनी ॥ श्री ॥४॥ अमृतसर मंमण स्वामी। घटघट में तूं विसरामी। तोरी श्राझा सिरपर धारी । हुं वेग वर्क शीव नारी ॥ श्री ॥५॥ निधियुग निधि इंड वरसे । मास कार्तिक शुक्ल पदेतिथि प्रतिपदा गुण गाया। ए वीरविजय सुख दाया ॥६॥
शति समाप्तं ॥