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श्रीमधीरविजयोपाध्याय कृत,
॥अथ श्रीआबुजीशषनजिन स्तवन॥
॥राग काफी ॥ नेट्यो अर्बुदराजरे थाजसफल घमी नई॥ ने ॥ श्रांकणी॥ नानिनंदजी के दरससरससे पुर गई मिथ्यावास । अनुजव ज्योत नई निजघटमें । त्रुटी नवकी पासरे ॥ था ॥१॥ दिनउद्धार करण तुम सरिखो नही दीठोणसंसार।प्रवहण प्रेरक जिम निरजामक बांग्रही तिमताररे ॥श्रा ॥२॥ चौगति चुरण चौमुख जिनवर अचलगढे मनोहार।दरिसण करकर कुरित नासे पापगये परिहाररे ॥ श्रा ॥३॥ तुम गुण केरा पारनपाउं जिम जलधी हेअगाधाक
पवृक्ष चिंतामण बोडके बाउलमा दियो बाथरे ॥श्रा ॥४॥ कोणतीण पलपलनाथ तुमारो ध्यानधरूं सुलतान । तुमगुण मकरंदपानी करकर वीर विजय गु. लतानरे ॥ श्रा॥५॥ इति समाप्तं ॥