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१०४ श्रीमद् विजयानंदसूरि कृत, वदन कमल निरमल सुखकंद । निरविकार दृग दयारस पूरे । चूरे नविजनके अघ वृंद ॥ म॥१॥ सुचि तनु कांति टरी अघ नाति । मदन मया तुम करमनीकंद। जय जय निर्मल अघ हर जोति । द्योति त्रिजुवन निर्मल चंद ॥ मण ॥२॥ केवल दरस ग्यानयुत खामी।नामी श्रमदस दोस जरंद । लोकालोक प्रकाशित जिनजीवानी अमृत ऊरीवरसंद॥ म ॥३॥ पिके नविजन अमर नयेहै। फिर नही नवसागरही फिरंद । नित्यानंद प्रकाश जयोहै। करम नरमको जार्यों फंद ॥म ॥४॥ अवर देव वामारस राचे। नासे निज गुन सहजानंद । तं निरमद विनु श्श शिवशंकर । टारे जन्म - मरण पुःख धंद ॥ म ॥ ५॥ तेरेही चरण शरण हूं आयो। कर करुणा अर्हन जगद । अंतर गत मुफ सह तूं जाने। शरणागतकी लाज रखंद ॥ म ॥६॥गुर्जरदेशमें आत्मानंदी । नोयणी ननवर