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अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् ।
[ तृतीयो वर्गः
सुणक्खत्तेऽपि सुनक्षत्र कुमार भी णिग्गते-श्री भगवान् के मुखारविन्द से धर्म-कथा सुनने के लिये निकला और धर्म-कथा सुनने के अनन्तर जहा-जिस प्रकार थावच्चापुत्तस्स-स्त्यावत्या पुत्र का हुआ था तहा-उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार का भीनिक्खमणं-निष्क्रमण (दीक्षामहोत्सव) हुआ जाव-यावत् वह मी सांसारिक सब सुख और सम्पत्ति को छोड़कर अणगारे-अनगार अर्थात् साधु जाते-हो गया
और ईरियासमिते-ईर्या-समिति वाला जाव-यावत् अन्य साधु के गुणों से युक्त हो कर वंभयारी-ब्रह्मचारी हो गया । तते-इसके अनन्तर णं-पूर्ववत् वाक्यालङ्कार के लिये है से-वह सुणक्खत्ते-सुनक्षत्र अणगारे-अनगार जं चेव दिवसं-जिसी दिन समणस्स-श्रमण भगवतो म०-भगवान महावीर के अंतिए-समीप मुंडे-मुण्डित हुआ जाव-यावत् तं चेव दिवसं-उसी दिन अभिग्गह-अभिग्रह धारण कर लिया तहेव-उसी प्रकार जाव-यावत् जो कुछ भी भिक्षा से प्राप्त करता था उसको विलमिव-सर्प जिस प्रकार विना प्रयास के बिल मे घुस जाता है उसी प्रकार वह भी आहारेति-विना किसी लालसा और स्वाद के भोजन करता था और संजमेणं जाव-संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विहरति-विचरण करता था। इसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी बहिया-बाहर जणवयविहारजनपद-विहार के लिए विहरति-गये और इस बीच मे सुनक्षत्र अनगार ने एक्कारसएकादश अंगाइ-अङ्गों का अहिज्जति अध्ययन किया फिर संजमेणं-संयम और तवसा-तप से अप्पाणं-अपनी आत्मा की भावेमाणे-भावना करते हुए विहरतिविचरण करने लगा। तते णं-इसके अनन्तर से-वह सुणक्खत्ते-सुनक्षत्र अनगार अोरालेणं-उदार तप से जहा-जैसा खंदतो०-स्कन्दक था वैसा ही हो गया ।
_ मूलार्थ हे भगवन् ! इत्यादि प्रश्न का पहले सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए । (उत्तर में सुधर्मा स्वामी कहते हैं) हे जम्बू ! उस काल और उस समय में काकन्दी नाम की नगरी थी। उसमें भद्रा नाम की एक सार्थवाहिनी निवास करती थी। वह धन-धान्य-सम्पन्ना थी । उस भद्रा सार्थवाहिनी का पुत्र सुनक्षत्र नाम वाला था । वह सर्वाङ्ग-सम्पन्न और सुरूप था । पांच धाइयां उसके लालन पालन के लिये नियत थीं। जिस प्रकार धन्य कुमार के लिए बत्तीस दहेज आये उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार के लिये भी आये और वह सर्व-श्रेष्ठ भवनों में सुख का अनुभव करता हुआ विचरण करने लगा। उसी समय श्री भगवान् महावीर