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अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् ।
[ तृतीयो वर्गः
बिलमिव - बिल के समान अर्थात् जिस प्रकार सर्प केवल पार्श्व भागों के संस्पर्श से बिल मे घुस जाता है इसी प्रकार धन्य अनगार भी आहार - आहार को बिना आसक्ति के आहारेति २ - मुंह में डाल देता है और आहार कर फिर संजमे - संयम और तवसा - तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विहरति- विचरण करता है ।
मूलार्थ - इसके अनन्तर वह धन्य अनगार प्रथम - पष्ठ-क्षमण के पारण के दिन पहली पौरुषी में स्वाध्याय करता है । फिर जिस प्रकार गोतम स्वामी आहार के लिये श्री श्रमण भगवान् की आज्ञा लेता था इसी प्रकार वह भी श्री भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर काकन्दी नगरी में जाकर ऊंच, मध्य और नीच सब तरह के कुलों मे आचाम्ल के लिए फिरता हुआ जहां दूसरों से उज्झित मिलता था वहीं से ग्रहण करता था । उमको बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुत्रों से आज्ञप्त उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा समिति से युक्त भिक्षा में जहां भात मिला, वहां पानी नहीं मिला, तथा जहां पानी मिला, वहां भात नहीं मिला । इस पर भी वह धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि कलुपता और विषाद प्रकट नहीं करता था, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त हो कर, प्राप्त योगों में अभ्यास करता हुआ और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हुए चरित्र से जो कुछ भी भिक्षावृत्ति से प्राप्त होता था उसको ग्रहण कर काकन्दी नगरी से बाहर आ जाता था और बाहर आकर जिस तरह गोतम स्वामी आहार श्री भगवान् को दिखाते थे उसी तरह दिखाता था । दिखाकर श्री भगवान् की श्राज्ञा से विना यक्ति के जिस प्रकार एक सर्प केवल पार्श्व भागों के स्पर्श से बिल में घुस जाता है इसी प्रकार वह भी बिना किसी विशेष इच्छा के ( केवल शरीर-रक्षा के लिये ) आहार ग्रहण करता था और आहार ग्रहण करने के अनन्तर फिर संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करता था ।
टीका - इस सूत्र में धन्य अनगार की प्रतिज्ञा-पालन करने की दृढ़ता का वर्णन किया गया है । प्रतिज्ञा ग्रहण करने के अनन्तर वह जब भिक्षा के लिये नगरों मे गया तो उसको कहीं भात मिला तो पानी नहीं मिला, जहां भात मिला था वहां पानी नहीं । किन्तु इतना होने पर भी उसने धैर्य का त्याग कर