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तृतीयो वर्गः ]
भापाटीकासहितम् ।
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कार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं । इसके अनन्तर वह धन्य कुमार श्रमण भगवान महावीर स्वामी की यात्रा से आनन्दित और मन्तुष्ट होकर निरन्तर पष्ठ-पष्ट तपकर्म से जीवन भर अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा।
टीका-इस सूत्र मे धन्य कुमार की धर्म-विषयक रुचि विशेष रूप से बताई गई है । वह दीक्षा प्राप्त कर इस प्रकार धर्म मे तल्लीन हो गया कि दीक्षा के दिन से ही उनकी प्रवृत्ति बडे २ तप ग्रहण करने की ओर हो गई। उसने उसी दिन भगवान से निवेदन किया कि हे भगवन् । मैं आपकी आना से जीवन भर पष्ट (बेले ) तप का आयंविल-पूर्वक पारण करूँ। उसकी इस तरह की धर्मजिनामा देख कर श्री भगवान ने प्रतिपादन किया कि हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हे सुग्व हो उसी प्रकार कगे। यह सुन कर धन्य अनगार ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुमार तप ग्रहण कर लिया।
'उज्झित-धर्मिक' उसे कहते हैं, जिम अन्न को विशेषतया कोई नहीं चाहता हो। जमे-"उझिय-धम्मियं ति, उज्झितं--परित्यागः स एव धर्म:--पर्यायो यम्याम्तीनि उशित-धर्मः" अर्थात जिस अन्न का मर्वथा त्याग कर दिया गया हो, वह 'उझिन-धर्म' होता है । आयबिल के पारण करने में ण्मा ही भोजन लेना चाहिए । 'समणत्यादि-श्रमणो निर्मन्थादिः, ब्रामणः-प्रतीतः, अतिथिः-भोजनकालोपस्थितः प्राघूर्णकः, कृपणः-दग्दिः, वनीपका-याचकविरोपः । ____अब सूत्रकार पहले सूत्र से ही सम्बन्ध रखते हुए कहते है :
ततणं से धणे अणगारे पढम-छ?-वरवमण-पारणगंसि पढमार पोग्याए मझायं करति । जहा गोतममामी तहब आपुच्छति। जाव जणेव कायंदी णगर्ग तणव उवागच्छति २ कायंदी गरी उच्च० जाव अडमाणे आयंबिलं जाव णावकंग्वंति । नने णं म धन्न अणगार नाग अव्भुञ्जनाप पयययाए पग्गहियात एमणाए जति भत्तं लभनि ना पाणं ण लभति. अह पागं ना भन्नं