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________________ ज्ञानार्णवः। अर्थ-दृष्टिकी विकलतासे वस्तुसमूहको अपनी इच्छानुसार ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके ध्यानकी सिद्धि खममें भी नहीं होती है ॥ १८ ॥ ध्यानसिद्धिर्यतित्वेऽपि न स्यात्पाषण्डिनां कचित् । - पूर्वापरविरुद्धार्थमतसत्तावलम्बिनाम् ।। १९ ।। . अर्थ-मिथ्यादृष्टिको ( अन्यथाश्रद्धानकरनेवाले अन्यमतीको ) गृहस्थावस्था छोड़के मुनि होनेपर भी ध्यानकी सिद्धि नहीं होती । क्योंकि वे पूर्वापरविरुद्ध पदार्थोंके खरूपमें समीचीनता (सत्यता) माननेवाले हैं, अर्थात् अन्यमतमें सत्ता यथार्थता नहीं है, ॥ १९ ॥ सो ही कहते हैं किं च पाषण्डिनः सर्वे सर्वथैकान्तदूषिताः। . अनेकान्तात्मकं वस्तु प्रभवन्ति न वेदितुम् ॥ २० ॥ · अर्थ-सब ही अन्यमती पाखंडी सर्वथा एकान्ततासे दूषित हैं, और वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक है अतः वे उसके यथार्थस्वरूपको जानने में असमर्थ हैं । स्साद्वादके जानेविना विरोध आदि दूपणोंका परिहार उनसे नहीं किया जा सकता है ॥ २०॥ नित्यतां केचिदाचक्षुः केचिच्चानित्यतां खलाः। मिथ्यात्वान्नैव पश्यन्ति नित्यानित्यात्मकं जगत् ॥ २१॥ . अर्थ-कोई २ सो वस्तुके नित्यता ही कहते हैं और कोई २ अनित्यता ही सिद्ध करते हैं । परन्तु यह जगत् नित्य अनित्य दोनों स्वरूप हैं ऐसा मिथ्यात्वके उदयसे नहीं देखते । भावार्थ-सांख्य, नैयायिक, वेदान्त और मीमांसकमतवाले तो आत्माको सर्वथा नित्य तथा जगतको अविद्यादिकके विलाससे विभ्रमरूप अनित्य मानते हैं और कहते हैं कि, "आत्माको अनित्य माननेसे आत्माका नाश होकर नास्तिकताका मत आता है और नित्यानित्य दोनों खरूप माननेसे विरोधादिक दूषण आते हैं"। इसप्रकार अपनी कपोलकल्पना करके आत्माको सर्वथा नित्य ही मानते हैं और चौद्धमती वस्तुको क्षणिक तथा अनित्यस्वरूप मानते हैं । नित्य . माननेको अविद्या कहते हैं और नित्यानित्य मानने में विरोधादि दूषण कहते हैं । किन्तु सबको जानना चाहिये कि, वास्तवमें वस्तुका स्वरूप जो नित्यानित्यरूप है, वह स्याद्वादसे ही सिद्ध होता है । उसमें विरोध आदि कोई भी दूषण नहीं आते । शोक है कि, ऐसा स्वरूप अन्यमती समझते नहीं है और अपनी बुद्धिसे कल्पना करके जिसतिसप्रकार सिद्धि करके सन्तुष्ट हो जाते हैं । परन्तु वास्तवमें विचार किया जावे, तो उनके ध्याता ध्यान ध्येयादिकी सिद्धि नहीं होती । इसकारण उनका कहना सब प्रलापमात्र जानना चाहिये ।। २१ ॥ . १०
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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